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अनेकान्त
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सम्पन्न हुआ था। और बीच-बीच में राजा स्वयं भी उपयोगी सलाह देता रहता था मूर्ति तैयार होने पर बीस पहियोंकी मजबूत एक गाड़ी तय्यार करा कर दस हजार मनुष्यों द्वारा मूर्तिको गाड़ी पर चढ़ाया गया था, जिसमें राम मंत्री, पुरोहित और सेनानायक के साथ जनसमुदायाने जयबोधके साथ उस गाड़ी को खींचा था और कई दिनोंके गातार परिभ्रमके बाद सूतिको अभिलषित स्थान पर बाईस सम्भंकि बने हुए अस्थायी मंडप में विराजमान कर पाया था, मूर्तिकी रचनाका अवशिष्ट कार्य एक वर्ष तक बरा बर वहीं होता रहा वहाँ ही मूर्ति पर बता बेल और नासादृष्टि आदिका यह कार्य सम्पन्न हुआ था। इस मूर्ति का कोई आधार नहीं है। मूर्ति सुन्दर और कलापूर्ण तो है ही, अतः अब इसकी सुरक्षाका पूरा ध्यान रखनेकी आवश्यकता है। क्योंकि यह राजा बीरपायकी भक्तिका सुन्दर बना है।
राजा इम्मडि भैरवरायने जो अपने समयका एक वोर पराक्रमी शासक या अपने राज्यको पूर्ण स्वतन्त्र बनानेके प्रयत्न सफल नहीं हो सका। यह राजा भी जिन मतिमै कम नहीं था। इसने शक सं० १२०८ (वि० सं० १६४३) में 'ऋतु'अवसर' नामका एक मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर की दृष्टि अनुपम है और अपनी खास विशेपता रखता है। इस मन्दिरका मूल नाम 'त्रिविक चैत्यालय' है। इस मन्दिरके चारों तरफ एक एक द्वार है जिनमें से तीन द्वारोंमें पूर्व दक्षिण उत्तर में प्रत्येक घरह नाथ मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत इन तीन तीर्थंकरोंकी तीन मूर्तियाँ विराजमान है। और पश्चिम द्वारमें चतुविरास तीर्थंकरोंकी २४ सूर्तियां स्थापित हैं। इनके सिवाय दोनों
म मी अनेक प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है। दक्षिय और बाम भागमा और थावतकी सुन्दर चित्ताक मूर्तियां है। मन्दिर की दीवालों पर और संभों पर भी पुष्प जवा आदि अनेक चित्र कति है, जो राजाके कथा प्रेम है। जैन रामाने सहा दूसरे धर्म वालोंके साथ समानताका व्यवहार किया है । राजाओं का वास्तविक कर्तव्य है कि वह दूसरे धर्मियोंके साथ समामताका व्यवहार करें, इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती है और राज्य में सुख शान्तिकी समृद्धि भी होती है।
[ किरण
राजा इम्मति भैरबराय समुदार प्रकृति था। उसने सन् १९८४ में शंकराचार्य के पहाघीरा नरसिंह भारतीको राजधानी में कुछ समय तक ठहरनेका आग्रह किया था, इस पर उन्होंने कहा कि यहाँ अपने कर्म नुष्ठान के लिये कोई देव मन्दिर नहीं है, अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। इससे राजाके चित्तमें कष्ट पहुँचा और उसने व अप्रति ष्ठित जैन मन्दिर जो नयोन उसने मनश्या था और जिसमें तक नरसिंह भारतीको उदराया गया था, उसीमें राजाने 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु' की सुन्दर मूर्ति स्थापित करा दो थी । इससे भट्टारक जी रुष्ट हो गये थे अतः उनसे राजाने क्षमा माँगी, और एक वर्षमें उससे भी अच्छा मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा ही नहीं की, किन्तु 'त्रिभुवनतिलक' नामक चैत्यालय एक वर्ष के भीतर ही निमाण करा दिया। यह मन्दिर जैनमटके सामने उत्तर दिशामें मौजूद है । मठ की पूर्व दिशा में पार्श्वनाथ वस्ति है।
कार कलमें बाहुबलीकी उस विशाल मूर्तिके अतिरिक्त १८ मन्दिर और है जिनकी हम सब बांगने सानन्द यात्रा की। उक्त पर्वत पर बाहुबली सामने दाहिनी ओर बाई और दो मन्दिर है उनमें एक शीतलनाथका और दूसरा पाश्वनाथका है।
कारकका यह स्थान जहाँ बाहुबली की मूर्ति विराजमान है बड़ा ही रमणीक है। यह नगर भी किसी समय वैभवकी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। यहाँ इस वंश में अनेक राजा हुए है जिन्होंने समयसमय पर जैनधर्मका उद्योत किया है। इन राजाओोंकी सभायें विद्वानोंका सदाचार रहा है। कई राजा तो अच्छे कवि भी रहे हैं। पाय
तिने 'अध्यानन्द' नामका सुभाषित प्रन्थ बनाया था और बोर पागव्य 'क्रियानिषष्टु' नामका ग्रन्थ रचा था। इनके समय में इस देशमें अनेक जैन कवि भी हुए हैं, ललित कीर्ति देवचन्द, काल्याणकीर्ति और नागचन्द्रयादि । इन कवियों और इन कृतियोंके सम्बन्धमें फिर कभी - अवकाथ मिलने पर प्रकाश डाला जायगा ।
उक्त
कारका अनेक राजा ही शासक नहीं रहे हैं, किन्तु उस वंशकी अनेक वीरानाने मी राज्यका भार बहन करते हुए : धर्म और देशकी सेवा की है। -क्रमशः