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________________ राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्म (ले०.०० बोकर, एम.१०. बिट०) दक्षिण और कर्नाटक अब भी जैनधर्मके सुपगढ़ है। धर्मके अनुमाथी तथा अभिषक थे। सचमेश्वरमें कितने वह कैसे हो सका। इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये राष्ट्रक्ट ही कल्पित अमिलेगा (तानपत्रादि) मिले हैं जो सम्भवंशके इतिहासको पर्यानोचन अनिवार्य है। दक्षिणमारत- पतः ईसाको पथवा वीं शतीमें दिये गये होंगे के इतिहास में राष्ट्रकूट राज्यकालका (सं०७३-101.) व्यापि उनमें वे धार्मिक उल्लेख हैं जो प्रारम्भिक चालुक्यसबसे अधिक समृद्धिका युग था। इस काल में हो जैन- राजा विनयादित्य, विजयादिस्य तथा विक्रमादिस्य द्वितीयने धर्मका भी दक्षिण भारतमें पर्याप्त विस्तार हुमाया। जैन धर्मायतनोंको दिये थे। फलतः इतना तो मानना ही राष्ट्रकूटोंके पतनके बाद ही नये धार्मिक सम्प्रदाय निका- पदेगा कि कचालुक्य नृपति यदा कदा जैनधर्मके पृटयतोंको उत्पति तथा तीव विस्तारके कारण जैनधर्मको पोषक अवश्य रहे होंगे अन्यथा जब ये परचात् लेख लिखे प्रबल धक्का लगा। राष्ट्रकूटकाल में जैनधर्मका कोई गये तब उक्त चालुक्य राजा हो क्यों दातार' रूपमें चुने सक्रिय विरोधी सम्प्रदाय नहीं था फलतः वह राज्यधर्म गये तथा दूसरे अनेक प्रसिद्ध राजाओं के नाम क्यों न दिये तथा बहुजन धर्मके पद पर प्रतिष्ठित था। इस युगमें गये इस समस्याको सुखसाना बहुत ही कठिन हो जाता जनाचार्योंने जैन साहित्यकी असाधारण रूपसे वृद्धि की है।बर संभव है कि ये अभिलेख पहिले प्रचारित हुए थी। तथा ऐमा प्रतीत होता है कि वे जनसाधारणको तथा छाल कर मिटा दिये गये सून लेखोंकी उत्तरकालीन शिक्षित करनेके सत्मयत्नमें भी संलग्न थे। वर्णमाला प्रतिलिपि मात्र थे। और भावी इतिहासकारोंके उपयोगके सीखनेके पहले बालकको श्री गणेशाय नमः' कण्ठस्थ लिये पुनः उस्की करा दिये गये थे, जोकि वर्तमानमें करा देना वैदिक सम्प्रदायों में सुप्रचलित प्रथा है, किन्तु उन्हें मनगदंत कह रहे हैं। जलवायके गंगराजवंशके अधिदक्षिण भारतमें अब भी जैन नमस्कार, वाक्य 'भीम् नमः काश राजा जैन धर्मानुयायी तथा अमिरक मे। जैनसिद्धेभ्यः' (ोनामासीधं.) व्यापक रूपसे चलता । धर्मायतनोंको गंगराज राचमा द्वारा प्रदा दानपत्र श्री. चि. वि. वैयने बताया है कि उक्त प्रचलनका यही कुर्ग में मिले हैं। जब इस राजाने बहुमलाई पर्वत पर वारपन लगाया जा सकता है कि हमारे काल ( राष्ट्रकूट ) अधिकार किया था तो उस पर एक नमन्दिरका निर्माखर में जैन गुरुवोंने देशको शिक्षामे पूर्ण रूपसे भाग लेकर कराके विजयी स्मृतिको अमर किया था। प्रकृत राज्यकाखइतनी अधिक अपनी छाप जमाई थी कि जैनधर्मका में नवमेश्वर में 'राय-राम बसवि, गंगापरमादिस्यादक्षिणमें संकोच हो जाने के बाद भी वैदिक सम्प्रदायोंके बय, तथा गंग-कन्दर्प चैत्यमन्दिर बामोंसे विख्यात जैन. बोग अपने बालकोंको उक जैन नमस्कार वाक्य सिखाते मन्दिर वर्तमान थे। जिन राजापाक नामानुसार उक ही रहें। यद्यपि इस जैन नमस्कार वाक्यके मज नमान्यता मन्दिरों का नामकरण हुमा था ये सब गंगवंशोष राजा पर रख अर्थ भी किये जा सकते है तथापि यह सुनिश्चित गेग नधर्मके अधिष्ठाता थे; ऐसा निष्कर्षक लेख परसे है कि इसका मूलस्रोत जन-संस्कृति ही थी। निकालना समुचित है। महाराज मारसेन द्वितीको परम भूमिका जैन थे। प्राचार्य अजितसेन उनके गुरु थे। जैनधर्म में राष्ट्रकूट युगमें हुए जैनधर्मके प्रसारकी भूमिका पूर्ववर्ती उनकी इतनी प्रगाढ बा थी कि उसोके वश होकर राज्यकालोंमें भली भांति तैयार हो चुकी थी। कदम्बवंश उन्होंने १७६० में राज्य त्याग करके समाधि मरस (ज.५ वी. ६ठी शती ई०) के कितने ही राग जैन- --- ३ इण्डियन एक्टीक्वायरी -पृ. 1 तथा भागे। १मध्यभारत तथा उत्तरभारतके दक्षिणी भागमें इस रूपमें अब भी चलता है। ४३० एण्टी०६पू. १०३ इविडयन एण्टीक्वायरी -पृष्ठ १९व्या मागे ५ एपी ग्राफिका इसिका, ४१०. इपिडयन एण्टीक्वायरी -पृ०३ ह.एण्टी .. ...-1
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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