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भनेकान्त
[किरण
यह बतलाते हैं कि प्राप्तोपज्ञ वही होता है जो इन विशे- की वह सारी दृष्टि सामने आ जाती है जो उसे श्रद्धाका पोसे विशिष्ट होता है जो शास्त्र इन विशेषणांसे विशिष्ट विषय बनाती है। इन विशेषणोंका क्रम भी महत्वपूर्ण है। नहीं हैं वे प्राप्तोप अथवा भागम कहे जानेके योग्य नहीं सबसे पहले तपस्वी के लिये विषय तृष्णाकी वशवर्तितासे हैं। उदाहरण के लिये शास्त्रका कोई कयन यदि प्रत्यक्षादि- रहित होना परमावश्यक है। जो इन्द्रिय-विषयोंकी तृष्णाके के विरुद्ध जाता है तो समझना चाहिये कि वह प्राप्तापज्ञ जाल : में रहते हैं वे निरारम्भो नहीं हो पाते, जो (निर्दोष एवं सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट ) नहीं है और प्रारम्भोंसे मुम्ब न मोद कर उनमें सदा संलग्न रहते हैं इसलिये आगमके रूपमें मान्य किये जानेके योग्य नहीं। वे अपरिग्रही नहीं बन पाते, और जो अपरिग्रही न बनकर (तपस्वि-लक्षण)
सदा परिग्रहोंकी चिन्ता एवं ममतासे घिरे रहते हैं वे रत्न विषयाशावशातीतो निगरम्भोऽपरिग्रहः।
कहलाने योग्य उत्तम ज्ञान ध्यान एवं तपके स्वामी नहीं
बन सकते अथवा उनकी साधनामें लीन नहीं हो सकते, ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न (क्त) स्तपस्वी स प्रशस्यते ।१० और इसतरह वे मत्श्रद्धाके पात्र ही नहीं रहते - उन पर __'जा विषयाशाकी अधीनतासे रहित है-इन्द्रियों- विश्वास करके धर्मका कोई भी अनुष्ठान समीचीनरीतिसे के विषयों में मासक्त नहीं और न पाशा-तृष्णाके चक्करमें अथवा भले प्रकार नहीं किया जा सकता । इन गुणोंसे हो पड़ा हुआ है अथवा विषयोंकी वांछा तकके वशवर्ती नहीं विहीन जो तपस्वी कहलाते हैं वे पत्थरकी उस नौकाके है-निरारम्भ है-कृषि वाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मके समान है जो आप बती हैं और साथमे आश्रितोंको भी व्यापार में प्रवृत्त नहीं होता- अपरिग्रही है-धन-धान्यादि ले डूबती है। बाघ परिग्रह नहीं रखता और न मिथ्यादर्शन, राग-द्वेष,
ध्यान यद्यपि अन्तरंग तपका ही एक भेद है फिर भी मोह तथा काम-क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रहसे अभिभूत ही
उस अलगसं जो यहां ग्रहण किया गया है वह उसकी होता है-और ज्ञानरत्न-ध्यानरत्न तथा तपरत्नका
प्रधानताको बतलानेके लिये है। इसी तरह स्वाध्याय नामके धारक है अथवा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहता है
अन्तरंग तपमें ज्ञानका समावेश हो जाता है, उसकी भी सम्यक ज्ञानका पाराधन, प्रशस्त ध्यानका साधन और
प्रधानताको बतलानेके लिये उसका अलगसे निर्देश किया अनशनादि समीचीन तपोंका अनुष्ठान बड़े भनुरागके
गया है। इन दोनोंकी अच्छी साधनाके बिना कोई सस्साधु साथ करता है-वह ( परमार्थ) तपस्वी प्रशंसनीय
श्रमण या परमार्थ तपस्वी बनता ही नहीं-सारी तपहोता है।
स्याका चरम बचय प्रशस्त ध्यान और ज्ञानको साधना व्याख्या-यहां तपम्वीके 'विषयाशावशातीत' आदि
ही होता है। जो चार विशेषण दिये गये हैं वे बड़े ही महत्वको जिये रहै और उनसे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ तपस्वी
-युगवीर