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________________ किरण] समन्तभद्र-वचनामृत [१५३ यहाँ 'अनादिमध्यान्तः पदमें उसकी रप्टिके स्पष्ट 'जा प्राप्तापज्ञ हो-मानके द्वारा प्रथमतः ज्ञात होनेकी जरूरत है। सिरसेनाचार्यने अपनी स्वयंभूस्तुति होकर उपदिष्ट मा हो, अनुल्लंघ्य हो-उल्लंघनीय नामकी द्वात्रिशिकानें भी भातके लिये इस विशेषणका अथवा स्वयहनीय न होकर ग्राम हो, दृष्ट (प्रस्वर) प्रयोग किया है और अन्यत्र भी शुद्धामाके लिये इसका और इष्ट (भनुमानादि-विषयक स्वसम्मत सिद्धान्त) प्रयोग पाया जाता है। उक्त टीकाकारने 'प्रवाहापेक्षा' का विरोधक न हा, प्रत्यज्ञादि प्रमाबोंसे जिसमें कोई भातको अनादिमध्यान्त बतलाया है परन्तु प्रवाहकी अपेक्षा- बाधा न पाती हो और न पूर्वापरका विरोध ही पाया जाता से तो और भी कितनी हो वस्तुएं मादि मध्य तथा अन्तसे हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपा रहित है तब इस विशेषणसे पास कैसे उपलक्षित होता है प्रतिपादक हो, सबके लिये हितरूप हो और कुमागका यह भले प्रकार स्पष्ट किये जानेके योग्य है। निराकरण करनेवाला हा, उमे शास्त्र-परमार्थ भागम वीतराग होते हुए प्राप्त भागमेशी (हितोपदेशी) कहते हैं। कैसे हो सकता है अथवा उसके हितोपदेशका क्या कोई व्याख्या-यहाँ पागम-शास्त्रके यह विशेषण दिये म.म-प्रयोजन होता है ? इसका स्पष्टीकरण - गये है, जिनमें प्राप्तीपज्ञ' विशेषण सोपरि मुरुष । अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतोहितम् । और इमपातको सूचित करता है कि नागम बामपुरुषले द्वारा प्रथमतः जात होकर उपदिष्ट होता है। पाप्तपुरुष ध्वनन शिल्पि-कर-स्पान्मुरजः किमपेचते ||८॥ सर्वज्ञ होनेमे पागम विषयका पूर्ण प्रामाणिक ज्ञान रखता ___ 'शास्ता-आप्त विना रागोंके-मोहके परिणाम- है और राग-दूंपादिमापर्ण दोषोंसे रहित होनेके कारण स्वरूप स्नेहादिके वशवर्ती हुए विना अथवा ख्याति-लाभ- उसके द्वारा सत्यता एवं यथार्थताके विरुद्ध कोई प्रबयन पूनादिकी इच्छा मोंके बिना ही-और विना प्रात्मप्रयो- नहीं बन सकता । साथ ही प्रणयनकी शक्तिसे वा मम्पा ज के भव्य-जावोंको हित की शिक्षा देता है। (इसमें होता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर पूर्वकारिका (१)में भापत्ति वा विप्रतिपत्तिकी कोई बात नहीं .) शिल्पीके उसे पागमेशी' कहा गया है-पही अर्थतः भागमक कर- शको णकर शब्द करता हुश्रा मृदंग क्या राग- प्रणयनका अधिकारी होता है। ऐसी स्थिति में यह प्रथम भावोंकी तथा प्रात्मप्रयोजनकी कुछ अपक्षा रखता है। विशेषण ही पर्याप्त हो सकता था और इसी (टिको लेकर नहीं रखता। अन्यत्र 'भागमा बाप्नवचनम' जैसे वाक्योंकि मा व्याख्या-जिस प्रकार मृदंग शिल्पीके हाथके स्पर्श भागमक स्वरूपका निर्देश किया भी गया है तब यहां पांच रूप बाह्य निमित्तको पाकर शब्द करता है और उस श- विशेषण और साथमें क्या जोदे गए है? यह एकम के करनेमे उसका कोई रागभाव नहीं होना और मअपना पैदा होता है। इसके उत्ताने में इस समय सिर्फ इतना कोई निजी प्रयोजन ही होता है-उसकी वह सब प्रवृत्ति ही कहना चाहता है कि लोक में अनेकोंने अपनेको स्वयं स्वभावतः परोपकारार्थ होनी ई-उसी प्रकार वीतराग अथवा उनके भोंने उन्हें 'प्राप्त' घोषित किया और प्राप्तके हित.पदेश एवं पागम प्रणयनका रहस्य है- उनके भागमगमें परम्पर विरोध पाया जाता है, जक उसमें वैसे किसी रागभाव या प्रारमप्रयोजनकी भावश्य- मत्यार्थ प्राप्ती अथवा निर्दोष मर्वज्ञ के प्रागमा विरोध कता नहीं, वह 'तीर्थंकरप्रकृति' नामकर्मके उदयरूप निमित्त- लिये कोई स्थान नहीं है, अन्यथावादी नहीं होते। इसके को पाकर तथा भव्य जीवोंके पुण्योदय एवं प्रश्नानुरोधके सिवा कितने ही शास्त्र वनको मस्यार्थ प्राप्तोंके नाम पर वश स्वतः प्रवृत्त होता है। रचे गये हैं और किनने ही सत्य शास्त्रों में बादको ज्ञाताभागे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ 'भागम' का ज्ञानभावमे मिलावरें भी हुई हैं। ऐसी हालतमें किस बरण प्रतिपादन करते हैं शास्त्र अथवा कथनको प्राप्तीपज्ञ समझा जाय और किमको (भागम-शास्त्र-बचर) नहीं, यह समस्या खड़ी होती है। उसी समस्याको हल करने के लिए यहां उत्तरवर्ती पांच विशेषणोंकी योजना हई प्राप्तोपज्ञमनुन्लंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् ।। जान पड़ती है। भलोपज्ञकी जाँच साधन है अथवा तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।६। यो कहिए कि प्राप्तीपश-विषयको स्पष्ट करनेवाले है
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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