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________________ ३६८] भनेकाना [किरण ११ - पैदा की। जिसने उसे पैदा किया उसको दूसरोंकी अपेक्षा शैव मवावलंबियोने शास्त्रार्य किया। लेकिन उन उस रोगको शान्त करने में भासानी होगीनी पाखण्डियों बसे हार बताकर एक दो नहीं, पाड मुझे बो चोटसी नगी । फिर भी वही बोलने हजार भमणों साधुनों (जैन) का बलिदान किया! दयाबगी:-'पाप उन लोगोंपे लिखी हुई कथाको पढ़कर शील ! प्रापको श्रमणोंके शूबारोपणकी कया मालूम कहते हैं। शायद हमारे समाजके नेता गण कुछ मन्त्र होगी। शायद अबतक जिम तामिल लोगोंको मालूम नहीं सबके द्वारा उगाकर राये होंगे । हमारे तालके पत्ते है उन्हें मेरी प्रार्थना पर दया कर इसे बताने की कृपा करें जलना, उनका वेगवती (वैगै) नदीमें बह जाना जैसी और उनकी साधुता पर खुद भी सोचें। घटना शायद भापको सच सी दीखती होगी। लेकिन हे वह सुन्दर नारी जैसे आई थी वैसे ही भरय हो मानव हृदय ! मापसे प्रमके नामसे पूछती हूँ। या यों गई। लेकिन उसका स्वप्न मुझे भूलने पर भी भूला नहीं सर्मामले मापके शवस्वके नामसे पूछती है क्या प्रम. जाता। उस स्वप्नमें पायख्य राजा, उसकी रानी, अमात्य, 'सच्चाई.' प्रानन्द भादि दुनियां की स्वतन्त्र चीजें नहीं तथा ज्ञान सम्बन्ध भी प्रत्यद हुए। है क्या विभिख मतवाले एवं विभिन्न विचारके खोग गौर करनेकी बात यह है कि-जब पायल्य राजा दुनियामें जीने नहीं चाहिए? श्रमण ( श्रमणोपासक जन ) था; तब उसकी रानी और यदि हम जोग हार खाये हुए होते तो हम उस सचो अमात्य शैवमतावलंबी हो कर भी बड़े मजे से रहते थे। कथा को मीठी-मीठी भाषामें । तामिल में) बोलते और किन्तु जब राजा शैव हुमा तब एक श्रमण ( जैन भी लिखते। हे सहृदय! द्राविडसुत! तामिनरूपी शस्व- नहीं रह सका । कल तक राजाके विचार-विमर्शक एवं मित्र सामबिको हम लोगोंने ही सुगन्धित एवं मधुमिश्रित के पथ पर रहते हुए लोगोंका भी आज शैवके प्रमने सीमाबनाया। हमलोगोंने ही तामिल भाषाकी सजीवताको का उल्लंघन कर सत्यानाश कर डाला। सारे श्रमणों (जैनों) किया है। तामिन एवं उस भाषा-भाषीके हृदयको को शूबी पर चढ़ाने का हुक्म दे दिया गया। उस माझा धर्म, प्रेम, दया और दान भादि हम जोगांने ही दिया है। को सिरपर धारण कर कुबग्चिरनायनार' ने उस कामको 'तिरुक्कुरल', 'जीवकचिन्तामणि', सिलप्पधिकार' बड़ी प्रसन्नता संपन्न किया। 'नालडियार' 'नन्नूल', मेरुमन्थरपुराणम्' 'नीलकंशी' फिर हुमा क्या? सुन्दर मथुरा एकदम श्मसानभूमि पादिके रूपमें कमनीय काम्यरस हमारे धर्मवालोनेही बन गई । सर्वत्र मृत शरीरोंकी दुर्गन्ध फैलने बगी। पिलाया है। वेगवती (बैंगै) नदीमें पानी बहने के बदले रकका प्रवाह वह रूपरानी अपनी इस बातको रोककर और बोलने बहने लगा। मृत शरीरों पर प्रेमासक्त पशु-पक्षियोंने बगी कि:-हमारे यहाँ शिक्षिका पर बैठकर जाने वाले शिवभकांसे दिए हुए सम्मानको बड़े प्रमसे ग्रहण किया। कोई 'नायनमार' नहीं है। और उस शिविकाको अपने मथुरा नगरीके श्मसानभूमिमें काव्य दिए हुए कन्धे पर उठाकर ले जाने वाले कोई 'नायनमार' भी नहीं हृदयको, धर्मोपदेश दो हुई जिह्वाको और चित्रकलामें दर है। हम तो जातिकी कदर नहीं करते । हम यदि हार गये हाथोको कुत्ते, स्वार, पिशाच मादि खींच खींच कर इधरहोते तो उसे भी अपनी कवितामें जरूर लिख देते । इसके उधर लेजाकर पटक देते थे और भाग जाते थे। अलावा शाश्वत संपत्तिके समान उसे पत्थरमें शिलान्यास मैंने शूली पर चढ़ा कर मारना क्या चीज है; उसे भी कर देते । मान बीजिये, उस वक हमें हार भी हो गई उसी समय जाना । मानों मुझीको शूली पर चढ़ाया गया होती; बाद में वह हमें हजारों गुणी विजयका कारण बन हो! ऐसा कम्प होने बगा कि मेरा स्वप्न टूट गया और जाती । मानो इसी भयसे हम लोगोंका तत्क्षण सत्यानाश मांखें खुल गई। कर दिया गया है। उस समय हम लोग उन पाखविडयों- मेरे पासपासके मित्र हसे, लेकिन मैं कुछ नहीं केद्वारा (मूठे ) प्रेमके नामसे, सरपके नामसे, धर्मके नाम बोला। ठंडी आहें भरी। कभी न मुरमाने वाली उस सेबड़ी निर्दयताके साथ शुजीवर चढ़ाकर बलिदान कर चित्रकी बजना एवं उसका प्रिय पति दोनों उस भयंकर दिये गये। पैशाधिक मनुण्याहुतिमें हव्य बने हों!!!
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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