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धवलादि ग्रन्थोंके फोटो और हमारा कर्तव्य
(ले० श्री ला० राजकृष्ण जी जैन) जैन बार मय में भी धवन, जयधवल और महाथवनका प्राचार, न्याय, ज्योतिष, गणित आयुर्वेद प्रादि विषध वही स्थान है, जो कि हिन्दुओं में वेदोंका, ईसाइयों में बाह- विषयोंपर सहस्रों अन्योंकी रचना जैनाचाोंने की । शायद बिल का और मुसलमानों में कुरानका है।
ही कोई ऐमा विषय वचा हो, जिस पर कि जैनाचार्योंने भगवान महावीरके पश्चात् ६३ वर्ष तक केवल ज्ञानी प्रकृत. संस्कृत भाषाके अतिरिक कनादी, तामिन भादि और तत्पश्चात् १०० वर्ष तक पूर्ण तहानी होते रहे। विभिन देशी भाषामोंमें भी अपने साहित्यको रचा, जो काल क्रमसे अज्ञातका उत्तरोत्तर वास होता गया, कि माज भी भारतीय वायमें सर्वोच स्थानको ग्राम है। . तब श्रीधरसेनाचार्य ने प्रवचन-वात्सत्यसे प्रेरित होकर जब भारतम सम्प्रदायिकताका-बांसवाला था, तब और दिन पर दिन लोगोंकी धारणाशक्तिकी हीनता जैनेतरोंक धर्मान्ध प्रबल भाक्रमणोंने हजारों जैन प्रधोंको होती हुई देखकर श्रतविच्छेदके भयसे दक्षिण देशसे दो अग्निमें जलाया, तथा नदी और समुद्रामें बहाया । इनके सुयोग्य शिष्योंको बुलाकर अपना श्रुतज्ञान उन्हें पढ़ाया अत्याचारोंसे पीदित होकर धार्मिक लोगोंने बचेखुचे जो कि पाके भूतबलि और पुष्पदन्तके नामसे प्रसिद्ध हुए। साहित्यको रखाके लिए अवशिष्ट प्रन्थोंको भंडारों और इन्होंने पट खंडागमकी रचना की। इसी समयके पास-पास गलियों में बन किया।
किसानों गुणधराचार्य ने कसायपाहुबकी रचना की। इन दोनों रहने और सार संभाल नहो सकनेसे हजारों ही अन्य सिद्धातग्रन्थों पर वीरसेनाचार्यने विशाल भाष्य रचे । षट्- सीलनसे गल गये और हजारों ही दीमकोंके भय बन गये खंडागमके प्रारम्भिक ५ खंडोंके भाष्यका नाम धवल है ऐसे समयमेंहमारे महविद्रीके धर्मप्राण पंचाने करीवजार और कषायपाहुडके भाष्यका नाम जयधवल है। षट्- वर्षसे उक्त प्रन्थोंकी एकमात्र प्रतिषोंकी अत्यन्त सावधानी खंडागमके छठे खंडका नाम महाबन्ध है जो कि महा- के साथ रक्षा की। पतदर्थ उनको जितना भी धन्यवाद धवन नामसे भी प्रसिद्ध है।
दिया जाय और भाभार प्रदर्शित किया जाय थोता है। भारतीय वाङ्गमयमें वेदव्यासके महाभारतका प्रमाण सारा जैन समाज उनके इस महान कार्यक बिधे कल्पात सबसे अधिक माना जाता है, जबकि वह मूल ८ हजार तक ही रहेगा। महविजीके पंचों और गुरुभोंके प्रसादसे श्लोकके लगभग ही रहा है। परन्तु वीरसेनाचार्य रचित
ही पाज ये ग्रन्थ सुरक्षित रहे और हमारे रष्टिगोचर हो अकेले धवल्लभाष्यका प्रमाण बहत्तर हजार श्लाक और है। जयधवल भाष्यका प्रमाण साठ हजार श्लोक है मेरे ख़यालमें भारतीय ही क्या, संसारके समप्रवाहमय में किसी धवलादि सिद्धातग्रथाक प्रकाशमानेका इतिहास एक ही ग्रन्थका इतना विशाल प्रमाण खोजने पर भी नहीं
सुना जाता है कि इन प्रग्योंके प्रकाशम लाने और मिलेगा।
उनका उत्तर भारतमें पठन-पाठन द्वारा प्रचार करनेका धवखसिद्धान्तमें जीवकी विविध दशाओंका महा- विचार पं. टोडरमलजीके समयमें जयपुर और अजमेरकी धवल में चार प्रकारके कर्मबन्धका और जयध्वनमें जीव भोरसे हुा था, पर उस समय सफलता न मिल सकी तथा कर्मके निमित्तसे होने वाले राग-दूषकी नाना पर्यायों तदनन्तर प्राजसंलगभग ७० वर्ष पूर्व स्व. सेठ माथिका का वर्णन है । जीव और कर्म जैसे सूक्ष्म तत्वोंका यह चन्द पानाचन्द जे. पी. बम्बई, सेठ हीराचन्द नेमचन्द सुन्दर. सरल और दार्शनिक विवेचन अवख, जयधवक्ष सोलापुर और सेठ मूलचन्दजी सोनी अजमेरके वर्षो
और महाधवन जैसे निर्मल नामोंसे ही अपने उज्जवल सतत प्रयासके पश्चात् , ताइपत्रोंसे कागजके ऊपर कनाली देशका परिचय दे रहा है।
और नागरी प्रतिलिपि सन् १९९८ में सम्पन हो सकी। इन विशालकाय सिद्धान्तपन्धोंके अतिरिक्त दर्शन, उक्त सिद्धान्त अन्य की प्रतिलिपि करते समय पंडित