________________
३७० ]
अनेकान्त
[किरण १२
-
गजपति उपाध्यायने गुप्तरीतिसे उनकी एक कनदी प्रति- यात्रासे वापिस लौटकर मैं पूज्यपाद श्रीपुल्लक बिपि भी कर ली। उसे लेकर वे सेठ हीराचन्दजी और पं० गणेशप्रसादजी वर्णक दर्शनार्थ गया, और सर्व वृत्तान्त सेठ माणिकचन्द्रजीके पास पहुंचे । पर उन्होंने चोरीसे कहा। जिनवाणीके आधारभूत उक्त सिद्धांतमयोंकी जनकी गई उस प्रतिलिपिको नैतिकताके नाते खरीदना उचित रित दशाको सुनकर श्री वीजीका हदय द्रवित हो उठा नहीं सममा । अन्तमें वह सहारनपुरके लाला जन्बूप्रसादजी और उन्होंने मूलप्रतियोंके फोटो लिये जानेका भाव मेरे ने खरीदकर अपने मन्दिर में विराजमान कर दी। कनकीस से व्यक्त किया । मैंने दिल्खी पाकर पूज्य वर्गीका विचार नागरी लिपि में विखते हुए एक गुप्त कापी पं० सीताराम श्री १०८ नमिसागर जी के सम्मुख प्रकट किया। और शास्त्रीने भी कर ली, और उनके द्वारा ही ये ग्रन्थराज उन्होंने भी उसका समर्थन ही नहीं किया, बल्कि तस्कान उचर भारतके अनेकों भण्डारोंमें पहुंचे।
उसे कार्यान्वित करनेके लिये प्रेरित भी किया। सन् १९५५ में भेलसा निवासी श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीके दानके द्वारा स्थापित जैनसाहित्योद्धारक फंड
न दो मास पूर्व श्री बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता, मध्यर
दा मास पूर्व श्राप अमरावतीसे धवलसिद्धान्तका हिन्दी अनुवादके साथ वार
वीरसेवामंदिर देहली गिरनारकी यात्राये जाते हुए पूज्य प्रकाशन प्रारम्भ हुमा । सन् १९४२ में श्री भा० दि. जैन
वर्णीजीके पास पहुँचे, तब वणींजीने उनका ध्यान भी इस संघ बनारससे जयधवलका और सन् १९४७ में भारतीय
भोर पाकषित किया। उनके यात्रासे वापिस लौटने पर मैं, ज्ञानपीठ बनारससे महाधवलका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।
मेरी धर्मपत्नी और बाबू छोटेलालजी २६ मार्च को मूडइस प्रकार उक्त तीनों संस्थानोंके द्वारा तीनों सिद्धांत
बिद्ीके लिए रवाना हुए। हमारे साथ वायू पन्नालालजी प्रन्योंके प्रकाशनका कार्य हो रहा है।
अग्रवाल के सुपुत्र बाबू मोतीरामजो फोटोग्राफर भी थे। परन्तु उक तीनों सिद्धान्त प्रन्थोंके सम्पादकोंने प्रन्यों- बार हमारा प्र
और हमारी प्रेरणाको पाकर श्रीमान् पं. खूबचन्द्रजी का सम्पादन करते हुए अनुभव किया कि चोरीकी पर- सिद्धान्त
सिद्धान्तशास्त्री भी मूडबिद्री पहुंच गए थे। म्परासे पाये हुए इन ग्रन्थराजोंमें अशुद्धियोंकी भरमार हमारे भाने के समाचार मिल जानेसे पहुँचनेके पूर्व हो है, अनेक स्थलो पर पृष्ठोंके पृष्ठ छूट गये हैं और साधा- हमारे ठहरने आदिको समुचित व्यवस्था वहाँके श्री १०५ रण छूटे हुए पाठोंकी तो गिनती ही नहीं है। यपि उक्त भट्टारकजी और पंचाने कर रखी थी। हमने जाकर अपने संस्थानोंने मूडबिद्रीमे मूखप्रतियोंके साथ अपनी प्रतियोंका
मानेका उद्देश्य बताया। हमें यह सूचित करते हुए मिलान कराया, जिससे अनेक छूटे और अशुद्ध पाठ ठीक
अत्यन्त हर्ष होता है कि श्री १०५ भट्टारक चारूकीर्ति हुए, तथापि भनेक स्थान संदिग्ध ही बने रहे और भाज
महाराजने और वहांक पंचोंने धर्मस्थलके श्री मंज या भी मूलप्रतिसे मिलानकी अपेक्षा रखते हैं।
हेगडेकी अनुमति लेकर हमें न केवल उन प्रन्यांके गतवर्ष मैं सकुटम्ब और श्री. जुगर्जाकशोर जी
कांटा बनेकी ही आज्ञा दी, अपितु हर प्रकार मुख्तार, मादि (अधिष्ठाता-वीर सेवा मन्दिर ) विद्वानों
सवा मान्दर ) विद्वामा का महयोग प्रदान किया। हम लोग वहां पर करीब के साथ महामस्तकाभिषेकके समय दक्षिणकी यात्राको
१२ दिन रहे। इस बीच वहांके भट्टारक जी और पंचोंने गया और मूडबिद्री पहुँच कर सिद्धान्तप्रन्थोंके दर्शन
जिस वात्सल्य, सौहार्द एवं प्रेमका परिचय दिया, उसे किये। सिद्धान्तप्रन्योंके दर्शन करते हुए जितना हर्ष ।
व्यक्त करनेके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं। इनमें हुमा, उससे कई सहनगुणा दुःख उनकी दिन पर दिन
उक्लेखनीय नाम श्री १०५ भट्टारक चारूकीति जी महाजीर्ण शीर्ण होती हुई अवस्थाको देखकर हुमा। तापत्रीय प्रतियोंके अनेक पत्र टूट गये है और अनेक स्थलों राज, श्री दी. मंजेया हेगडे धर्मस्थल, श्री पुहा स्वामी के अपर बिखर गये हैं। हम लोगोंने उस समय यह अनु- एडवोकेट मंगन
व एडवोकेट मंगलौर, श्री देवराज एम. ए.बी. एब. भव किया कि यदि यही हाल रहा और कोई समुचित मंगलौर, श्री धर्मसाम्राज्य मंगलौर, श्री जगतपालजी मूड व्यवस्था न की गई, तो वह दिन दूर नहीं, जब कि हम विद्री, श्रीधर्मपालजी सेठी मूडपिद्रो, की पमराजजी सेठी योग सदाके लिए इनके दर्शनोंसे वंचित हो जायेंगे। महविद्री तथा श्री पं० मायराजजी शास्त्री के है।