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________________ किरण १२] धवलादि ग्रन्थों के फोटो और हमारा कर्तव्य [३७१ - हमारा उद्देश्य कर हमें सूचित करें। मैंने दिल्ली में इस विभागसे बातचीत माज भारत स्वतन्त्र है। प्रत्येक धर्म और प्रारम्भ कर दी है। प्राशा है कि उक्त विभाग की भोरसे समाज अपने पूर्वजोंकी कृतियोंको सुरक्षित रखनेके लिए शीघ्र स्वीकृति मिल जायगी और बहुत शीघ्र तारपत्रीय प्रयत्नशील है। भारतकी राजधानी देहलीमें निस्य प्रतियोंका कायाकल्प किया जा सकेगा। सांस्कृतिक सम्मेलन होते रहते हैं। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र यह बात तो सिद्धान्तप्रन्थोंकी हुई । इनके पतिप्रसादजीने अपने भवनका एक भाग पुरातत्व कला और रिक्त मूडबिद्रीके भंडारमें इससमय कई हजार ताइपत्रीय साहित्यके संग्रह तथा प्रदर्शनके लिए नियत किया हमा प्रस्थ हैं जिन्हें खोलनेका शायद ही कभी किसी को कोई हे। ऐसी दशामें हमारे भी मनमें यह भाव जागृत हुधा अवसर प्राप्त हुआ हो। इन प्रन्योंको वहांके पंचोंने कई कि यदि हमारी भी प्राचीन कला और पूरातत्वकी सामग्री वर्षों के सतत परिश्रमके पश्चात् दणि कर्नाटक संग्रह प्रकाश में पाये, तो जैनधर्मका महत्व सारे संसारमें ग्यास किया है। उनके द्वारा हमें यह भी ज्ञात हुपा है कि उत्तर हो सकता है। कर्नाटक और तामिल प्रदेशमें अभीभी हजारों जैनग्रन्थ इसी उद्देश्यको लेकर हमने निश्चय किया कि दि० लोगोंके पास और मन्दिरोंके भएमरोंमें अपने जीवनकी जैन सम्प्रदायके इन ग्रन्थराजांकी जिनकी कि एकमात्र अन्तिम घड़ियां गिन रहे हैं, जिनके तत्काल उद्धारकी मूलतियां दिन पर दिन जीर्ण शीर्ण हो रही हैं। इनके अत्यन्त आवश्यकता है। फोटो लेकर उसी कनवी लिपिमें ताम्र पट पर ज्योंका त्यों हमारे समाजका लाखों रुपया प्रति वर्ष मेले ठेखों में अंकित कराया जाय और उनके मूलभूत सिद्धान्तोंका जग- व्यव होता है। विवाह शादियों में भी रुपया पानीकी तरह तमें प्रचार किया जाय । जिससे कि भौतिकवादकी भोर बहाया जाता है। फिर भी हमारी समाजका अपनी गिनभागता हुआ संसार अध्यात्मवादको और मदे और प्रशां- वाणी माताकी इस दुर्दशाकी भोर जरा भी ध्यान नहीं तिके गहरे गतसे निकल कर शांतिकी शीतल छायाकी गया है। भाजके युगमें जिस समाजका या नातिका इतिओर अग्रसर हो। हास जिन्दा न हो, साहित्यका प्रचार न हो, वह जाति भी जैसा कि ऊपर बताया गया है, सिद्धांत-प्रन्यांकी क्या संसार की जीवित जातियों गिनी जानेके योग्य है। मूलप्रतियां कालके असरसे बहुत ही जीर्ण शीर्ण हो गई अतएव यह मावश्यक है कि समाजकी सम्पूर्ण शक्ति इस हैं। हमें फोटो लेते वक्त बहुतही सावधानीसे कार्य करना कार्य में लग जावे । यह कार्य यद्यपि लाखों रुपयेके व्ययसे पड़ा लेकिन उसी वक्त हमने यह अनुभव किया कि यदि सम्पन्न हो सकेगा। लेकिन इस प्रयाससे पता नहीं, हम 'तत्काल हो इन प्रतियांका कायाकल्प नहीं किया गया, तो कितने अदृष्ट और भूतपूर्व अनमोल प्रन्थ-रत्नोंको प्रास इनकी श्रायु अधिक दिनकी नहीं है। हमें यह सूचित करते कर सकेंगे। हुए हर्ष होता है कि मुबिद्री के पंचोंने भी इसी बातका जिनवाणी जिनेन्द्र भगवानकी दिग्य ध्वनिका ही अनुभव किया है। इनके कारण ही महान गौरव भाज नाम है। जिनवाणीका उद्धार और प्रचार करना जिनेन्द्र मूडबिद्री को प्राप्त है, वह सदाके लिए विलुप्त हो भगवानकी प्राज्ञाका ही प्रसार करना। हमारे महर्षिों जायेगा। भारत सरकार का एक प्रालेख संग्रहालय Natio- ये यजन्तं भक्त्या ते यजम्तेऽम्जसा जिनम् । nal Archive of India नामक विभाग है, जहां न किंचदन्तरं प्राहुराप्ता हि अवदेवयो। लाखों रुपये की कीमती मशीनरी है, जो अतिजीर्ण-शीर्ण प्रार्थात्-जो मक्कि पूर्वक अत (शास्त्र) की पूजा पत्रोंका वैज्ञानिक ढङ्कसे कायाकल्प करती है। जिससे कि करते हैं, वे निश्चयतः जिनभगवानकी पूजा करते हैं। उन अन्योंकी प्रायु सैकड़ों वर्षकी और बढ़ जाती है। क्योंकि प्राप्तजनोंने श्रत और देवमें कुछ भी अन्तर नहीं मैने जब इस विभागका परिचय वहांके पंचोंको कराया, कहा है। तब उन खोगोंने सरसुकता प्रगट की कि आप दिल्ली जाकर यह कार्य किसी एक व्यक्ति या संस्थाका नहीं है.पक जन प्रन्योंके कायाकल्पक विषयमें उस विभागसे बातचीत सारी जैन समाजका है। अतएव इस पुनीत कार्य में भा.
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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