________________
३७२]
अनेकान्त
[किरण १२
दि. जैन महासभा, दि. जैन परिषद्, दि. जैन संघ, विदू- अतः तभी से यह तिथि श्रुत पंचमीके नामसे प्रसिद्ध रपरिषद, भारतीय ज्ञानपीठ, ऐलक पन्नालाल दि.मैन है और प्रति-' इस दिन हमारे मन्दिरों में शास्त्रोंकी सरस्वती भवन आदि सभी सामाजिक संस्थाएं वीरसेवा पूजन होती है और सार सम्भाल की जाती है। हमने मन्दिरको अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करें, तभी यह इस वर्ष इसी श्रुत्त पंचमी के समय भूत सप्ताह मनानेका महान कार्य सुचारु रूपसे सम्पन हो सकेगा । आशा है विचार किया है। हम चाहते है कि इस अवसर पर सारे समाजके श्रीमान अपने धनसे, धीमान अपने बौद्धिक सह- भारतवर्ष में श्रुत सप्ताह मनाया जाय और सरस्वती-भंडारों योगसे और अन्य जब अपने वाचनिक और को खोलकर शास्त्रोंकी सार-सम्भाल की जाय, जीर्ण-शीब कायिक साहाय्यसे इस पुनीत कार्य में अपना हाथ बटा पत्रांकी मरम्मत की जाय, शास्त्रोंके वेष्टन बदले जायें
और ग्रन्थ सूची बनाई जाय । जहाँ जिन भाइयोंको कोई . उक्त सिद्धान्त प्रन्योंकी रचना पूर्ण होने पर ज्येष्ठ नवीन ग्रन्थ दृष्टिगोचर हो, वे हमें उसकी सूचना दे और
शुक्ला को सर्व प्रथम बड़े समारोहके साथ पूजन की थी, पत्रोंमे प्रकाशित कराय।
मलाचारके कर्ता
(हुल्लक सिद्धिसागर) मूलाचार अपरनाम 'पाचाराज' दिगम्बरजैन समाज- बा वट्टक एलाइरिय बना है। बट्टक शब्दका अर्थ वर्तक और का एक प्रसिद्ध प्रमाणिक ग्रंथ हैं। जिसका सीधा बृहद् आदि होता है। 'वट्ट' शब्दसे तदभाव अर्थ में 'क' सम्बन्ध भगवान महावीरकी प्रसिद्ध देशनासे है। जो प्रत्यय करने पर वट्टक' शब्द निष्पा होता है। वह शब्दके गणधर केवली श्रतकेलियोंकी परम्परासे प्राचार्य कुन्द- उराल, थूल, वहल्ल, जेट्र और पहाण पर्यायवाची नाम कुन्दको प्राप्त हुई थी। जो भद्रबाहु नामक पंचम श्रुतकेव- हैं। प्राचार्य वीरसेनस्वामीने उरालके पर्यायवाची नाम या जी उनके गमक गुरु थे। जो पूर्व परंपराके पाठी थे । वृत्ति एकार्थका विवेचन करते हुए धवनामें लिखा है किकार प्राचार्य वसुनन्दीने स्पष्ट रूपमें मूलाचारके कर्ताको 'उरालं थूलं ववहल्ल मिदि एयहो, अथवा उरालं जेट्ट, १८००० पद प्रमाण प्राचारांगके उपसंहारकर्ताके रूपमें पहाण मिदि एयहो। --धवला टीका ता. प. प्रति । बतलाया है। इस प्रथका पुराना उल्लेख निलोयपण्णत्ती उक्त कथनसे 'चट्टक' या 'वट्ट' का अर्थ ज्येष्ठ प्रधान में मूलाचार नामसे हुश्रा है और षट् खण्डागमको धवला या वृहद् होता है। अतः वृहर 'एलाचार्य ज्येष्ट एलाचार्य टीकाके कर्ता प्राचार्यवीरसेनने 'माचाराग' नामसे उद्घो. या प्रधान एलारियको वट्टकेराचार्यका नामान्तर समझना पित किया है। अतः इस ग्रन्थके अत्यन्त प्राचीन और चाहिये । यहां ऐतिहासिक दृप्टिसे वृहद भर्थ मेरे विचारसे महत्वपूर्ण होने में कोई सन्देह नहीं रहता है।
उस तथ्यके अधिक निकट जान पड़ता है। एलाचार्य में भी मूनाचारके कर्ता वट्टकेराचार्य हैं। 'वट्टकेराचार्य वृहद् एजाचार्य इट है, क्योंकि एलाचार्य नामके अनेक शब्दका अर्थ क्या है, इस पर सबसे पहले पं० जुगल- विद्वान हुए हैं। वटकका वृहद् अर्थ, प्रधान या ज्येष्ट अर्थ किशोरजी मुख्तारने विचार किया। उसके बाद पं.हीरा करने पर उनसे उनका पृथकत्व भी हो जाता है। साली शास्त्रीने अपने लेखमें प्रकाश डाला है। वह अनेकान्त वर्ष १२ की किरण " में मूनाचारके सन्द वर्तक-प्रवर्तक, वृहद स्थूल और प्रधान जैसे मयों में सम्बन्धमें पं० हीरालाल जी सिदान्त शास्त्री और पं० प्रयुक्त हुआ है।जसे प्राकृतमें 'ईश:' के स्थानपर 'एलि. परमानन्दजी शास्त्रीख विचारपूर्ण हैं, अनेकान्त मंगासो' होता है वैसे ही बहनहरा चार्यका वहक एलाचार्य कर पाठकोंको उसे अवश्य पढना चाहिये।
RA