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________________ कहानी स्तरके नीचे -मनु हानार्थी' साहित्य रत्न प्रीष्मका तस मध्याह्न है। मानव क्या सृष्टिका मुद्र- बाल हो उठी-"देखो न संसारमें ढोंगियों की भी कमी तम प्राणी भी प्रकृति की हरित छायामें अपने पापको नहीं। चोर-उचक्के सण्डे-मुसटे इसी वेषमें छुपते हैं। छुपाये हुए हैं। अब दिनकर की प्रखर किरणे असा हो नंगा बैठा है मंगा! दुनियाको बताता फिरता हैकपदेकी चली है। महामुनि चारुकीर्तिके तपश्चरणकी यही अबा. भी चाह नहीं और राजा महाराजा, सेठ साहूकारोंके घर धित वेला है । भिक्षाग्रहणके उपरान्त द्वितीय प्रहरके हलुभा पूरी, मेवे-मुरब्बे पर हाथ साफ करता है। बस अन्त मे, महामुनि जलते हुए पाषाण खण्डों पर ध्यानस्थ थोड़ा सा उपदेश सा उपदेश दे दिया-'गरीबों कोन हो गये हैं। धरती पर हैं मुनिकी आस्मिक तेज-रश्मियाँ, सतायो । बराबर बर्ताव करो' जैसे इसकी पावाज पर और पाकाशसे अविरल बरस रही हैं भास्कर की उत्तप्त रुक जायेंगे, ये सतानेके अभ्यासी लोग ! जहाँ पती-पदी रश्मियाँ । सृष्टि में मानों तेज-द्वयकी विचित्र स्पर्धा हो रही तोंद वालों और चमकते हुए मुकटवारियोंने 'महामुनि की हे! काम, क्रोध, माया और लोभके भयानक मेव मुनिके जय; महामुनि की जय' दो चार नारे लगाये कि फूलकर हृदयाकाशसे छिन्न-भिन्न हो चुके है। भाज ध्याता, स्वयं गुब्वारा हो गया। बिक गया जय-जयकी बोली पर और ही ध्यान और ध्येय बग गया है। ये जय बोलने वाले हाँ! ये जय बोलने वाले चिकने बड़े x x x की भाँति उपदेशका जल एक मोर बहाकर दुनिया में बेचारा धोबी अपने आपमें जलकर अङ्गार होता जा खून की होलियां खेलने लगते हैं।...... रहा है। जाने उसकी धोबिन कहाँ जा बैठी है।न भोजन तैयार है और न भोजनकी सामग्री। राजकीय इस प्रकारके भयानक उहापोहमें गंगूका मास्मिक सन्तुलन टूटने लगा और गरजता हुमा मुनिसे बोलावस्त्र संध्याके समय देना है। एक ओर है पेटकी ज्वाला और दूसरी ओर है राजाज्ञाका भय भूखा व्यक्ति व्याघ्र "श्री ढोंगी ! उठ यहांसे । क्यों भूपमें सिर फोड़ रहा से कम नहीं होता । पेटको भाग उसे दानव बना देती है। मगजम गर्मी चढ़ जायगी तो फिर बड़बड़ाने लगेगा है। पर करे तो, क्या करे ? वस्त्रोंकी गठरी लिए नदीकी उप का उपदेश ।" ओर बढ़ रहा है। पैर बढ़ रहे हैं, मन भारी होता ना पर महामुनि चारुकीतितो अनन्नमें अपने पापको रहा है। क्रोधके श्रावेशमें सोचता है-औरत क्या, दरमन खो चुके थे । संसारी नानवकी दुर्बलताएं उन्हें डिगानेको है। मामने दिख जाय तो ऐसी मरम्मत करूं बिनाल की पर्याप्त न थीं। वे सोचने लगेकि छठीका दृध याद आ जाय, और महाराजा साहब, 'वेचारा संसारी क्रोधकी श्रागमें मुलमा जा रहा बैठे होंगे राजमहलों में, खसके पदों में | उडेल रहे है। कैसी भयानक हैं दुनियां की परिस्थितियाँ। परिहोंगे अंगूरीके गिलास पर गिलास | संध्याका समय स्थितियाँका स्वामी श्राज उनका दास बना है। भाज होगा। राज भवनका ऊपरी भाग तर कर दिया जायगा, बन्धनाम जकड़ा मानव अपनेको बन्धनोंका स्वामी मान बैठा जलसे । पलंग डाले जायेंगे और कामुकता बर्द्धक चादर है, कैसी विडम्बना है ? जहाँ दुर्बलतामोंका ज्वार भाया कि लेकर जायगा गंगू । बदले में मिलेगा तिरस्कार और मुका दिया मस्तक, और दाम बन गया, युगों के लिए! घृणा ।...... मोह ! अम्तरमें कषायोंका दास और बांछमें परिस्थितियोंका मानसिक द्वन्दोंमें उलझा हुमा गंगू ज्योंही जमुनाके संकेत-नक ? बेचारा मानव ! चाट पर पहुंचा और मुनिको पाषाण खराहों पर ध्यानस्थ इधर मुनि मानसिक संसारमें उनके हुए थे और पाया तो सहसा जखकर अंगार हो गया। काले नागका उपर अनजान संसारी कोधकी भागमें जब बकर मिट बैसे मार्ग रोक दिया हो किसी ने कोषले बा बाब- रहा था। मावेशमें वह पागल हो उठा और भाव देखा
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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