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________________ ३७४ ] अनेकान्त [किरण १२ मताव, ऐसा धक्का मारा कि विरागीका मिर घाटके ही के परस्परमें पात-प्रतिघात ! पत्थरोंसे जा टकरावा । मुनिकी मास्मिकशक्ति सहसा उनके पैर धीरे २ स्थलकी ओर बढ़ने लगे। अधरों तिलमिला उठी । अान्तरिक शत्र जो दीर्घकालमे उपशान्त और आँखों में व्यंगात्मक मुम्कान दौरने लगी। दूसरे ही थे, एकाएक भड़क उठे। भावों में क्रोधके बाल २ डोरे सण ज्योंही दोनोंने महाराज जयवर्माको सामने देखा कि रह रह कर भाग बरसाने लगे । फिर क्या था हिमाकी दोनों पाषाण-खण्डोंकी भांति बचत हो गए। प्रकृति में प्रतिक्रिया हिंसामें कूद पड़ी। मुनिको पांखें देख कर गंगू स्तब्धता है पर हृदयोंमें ज्वार उठ रहा है। एक राज-कोप दानव बन बैठा और व्याघ्रकी भांति गरजता हुना टूट पड़ा से कॉप रहा है, तो दूसरा प्रारमग्लानिसे पानीपानी हो मुनि पर । पाँच-सात बार दे मारा सिर शिलखगहों पर। चला है। युगोंकी साधना एक शुद्र मानसिक दुबर्जताने मानों कोप-देवताके तर्पणके लिए नारियल फोड़ दिया हो। छिछ भिकर दी थी। जिस क्रोध-शत्रको मुनि चुका हुमा संसारी पर तरस खाने वाला विरागी भी खो बैठा अपने मानकर निश्चिन्त हो गया था वही राखके नीचे दवे हुए को और कूद पड़ा पावेशकी ज्वालामें। अंगारेकी भांति भड़क उठा, साधनाको नष्ट कर गया। दोनों ही पात्मिक, मानसिक और शाद्विक संयम खो प्रान्तरिकसे युद्ध था, वाझसे उलझ बैठा न जाने कितने बैट और होने लगा मलों जैसा भीषण युद्ध । विकारांको जीतकर वीतरागी होनेका सपना देख रहा x x x x था। परीक्षाका समय आया, आँख खोलकर देखा तापाया महाराजके वस्त्रोंमें विलम्ब क्या? नौकर दौड़ा हुमा अपने आपको साधनाके शिखरके नीचे । साधनाच्युत मुनि गंगू के घर पाया । पर उसे घर न पाकर ज्यांही घाट पर प्रास्मग्लानिने इतना जल उठा था कि उसका वश चले तो पाया तो संसारी और विरक्तका द्वन्द मचा देखा। महाराजकी कटार उनकी कटिसे खींच कर आत्म-घात कर माहस न हुधा निवारण करने का । उल्टे पांव दौडा और ले । पर शरीर तो पाषण हो गया है। महाराजको एक सासमें ही सब कुछ सुना गया। महाराज मुनिकी दयनीय स्थिति देखकर सिहर उठे। वे बोलेघबरा कर उठ खड़े हुए और पलक मारते ही घोड़ेको एड मुनिराज ! क्षमा करना मुझे । प्रयत्न करनेपर न पहचान देते हुए घाट पर जा पहुँचे। पर किनारा पाकर भी हतबुद्धि मका भापको । गुरुदेव । न जाने कितना विकृत हो गया क्यों ? क्या करते वे इस धर्म-संकट में । द्वंद्वके घात-अति- था पापका रूप उस समय ! घातमें कटिवस्त्र खो चुका था धोवीका । दोनों ही दिगंबर शिष्टाचार और खेदके ये शब्द मुनिको भात्मग्लानि बन बैठे थे । रूपसे दिगंबर, पर कृस्यसे दागव ? नग्नत्वकी की भागमें जैसे एक धक्का और मारने लगे । भारी सीमामें दोनांका परीक्षण कठिनतम होता जा रहा था प्रयत्न करने पर उनके मुखसे अस्पष्ट शब्द निकले । बबमहाराज बदी उनमन में थे। वे युगों पूर्वकी घटना स्मरण खड़ाती ध्वनि में वे बोले.."राजन् ! आपका क्या दोष । करने लगे।..."चालि और सुप्रीवमें युद्ध हुमा था, स्तर के नीचे गिरने के बाद महान नहीं रह जाता। फिर वहाँ मी सुग्रीवके गलेकी माला प्राधार थी, रामके महानताकी समाप्तिके बाद महान और साधारणमें भेद लक्ष्यका आज था प्राधर हीन न्याय, किसकी रक्षा किसको कैसा? अब कौन गुरुदेव और कौन मुनिराज । राजन ! दया? दोगेही नग्न, दोनोंकी आंखों में चिनगारियाँ, दोनों साधना-भ्रष्टको चुकजाने दो, मिटजाने दो। अनेकान्तके ग्राहकोंसे इस किरणके साथ १२वें वर्षके ग्राहकोंका मूल्य समाप्त हो जाता है । १३ वें वर्षसे अनेकान्तका वार्षिक मूल्य छः रुपया कर दिया गया है । अतः प्रेमी ग्राहकोंसे निवेदन है कि वे ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर अनुगृहीत करें । मूल्य मनीआर्डरसे भेज देनेसे उन्हें कमसे कम आठ आनेकी वचत होगी और अनेकान्तका प्रथमा समय पर मिल सकेगा तथा कार्यालय भी वी० पी० को झंझटोंसे बच जायगा। मैनेजर 'अनेकान्त' १, दरियागंज, देहली
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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