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साहित्य पुरस्कार और सरकार
(सत्यभक्त) साहित्य निर्माण कार्य में सरकार द्वारा मदद एक है वह फैल नहीं पाता। ऐसी अवस्थामें यह जरूरी है कि प्राचीन परम्परा है और जरूरी भी है। साहित्यिक समाज- इस कार्यको राज्याश्रय दिया जाय । सेवा असाधारण है । वह मनुष्यबाका निर्माण करने वाला सरकारोंका ध्यान है। जिन विचारोंके कारण यह मनुष्याकार प्राणी वास्त- यह प्रसन्नताकी बात है कि स्वराज्य मिलमेके बाद विक मनुष्य कहलाता है उन विचारोंका दान साहित्यिक कुछ सरकारोंका ध्यान इस भोर गया है। उत्तर प्रदेशीय करता है। लेकिन उसे इसका प्रतिपादन नहीं मिलता। सरकारने इस विषय में देशका पथ-प्रदर्शन किया है। वह उसका पूरा प्रतिदान मिलना तो कठिन ही है, पर पुष्पके मरछी पुस्तकों पर ३०० से १२००)वक लेखकको रूप में भी नहीं मिल पाता है।
पुरस्कार देती है। इससे अनेक लेखकोंको राहत मिली है। पुराने जमानेमें छापेका रिवाज न होने से प्रथ विक्रय- परन्तु इस याजनामें एक त्रुटि है कि लेखकको तो का कार्य नहीं होता था, अब होने लगा है. और दूसरे पुरस्कार मिल जाता है लेकिन उसका साहित्य जनता तक देशमें प्रन्य-प्रणेता लोग इसी कार्यसे काफी बड़े धनवान नहीं पहुंचता । इसलिये साहित्य निर्माणका वास्ताविक भी बन जाते है। पर भारत में यह बात नहीं है। यहाँ साध्य सिद्ध नहीं होता। धनवान बनना तो दूर, पर मध्यम श्रेण के एक गृहस्थके इस वर्ष केन्द्रीय सरकारने कुछ सुधरी हुई व्यवस्था समान गुजर करना भी मुश्किल है। इने गिने प्रकाशक बनाई है। उसने हजार हजार रुपये पाँच और पाँच पाँच जरूर कुछ धनवान बने हैं कुछ पुस्तक विक्रेता भी धनवान सौ रुपयेके पन्द्रह पुरस्कार रक्खे हैं। साथ ही यह भी बने हैं। पर अन्य प्रणेता तो दुर्भाग्यका शिकार ही हैं। निश्चित किया है कि जो साहित्य पुरस्कृत किया जायगा
फिर जो लोग ठोस साहित्य नहीं किन्तु मनोरंजक उसकी दो दो हजार प्रतियाँ सरकार खरीदेगी। वास्तवमें साहित्य लिखते हैं वे ही किसी तरह कुछ कमा पाते हैं। यह विधान बहुत जरूरी है। गत वर्ष मेरी पुस्तकोपर उत्तर प्रकाशकको अच्छे साहित्यसे मतलब नहीं उसे अधिकसे प्रदेशकी सरकारने १२००)का प्रथम पुरस्कार दिया इससे अधिक चलतू साहित्य चाहिए और पुस्तक विक्रताको कुछ वधाइयाँ तो मिली पर १२००)का पुरस्कार होने पर चलतू सादिस्यके साथ अधिकसे अधिक कमीशन मिलना भी पुरस्कारकी शुहरतसे बाहर पुस्तकें भी नहीं बिकी। चाहिये । कमीशन अधिक मिले तो वह कचड़ा भी बेचेगा, इस मामले में तो मछ। और उच्च साहित्यपर तो घोर कमीशन कम मिले तो वह अच्छे से अच्छा साहित्य भी न संकट है। जो उसे समझ सकते हैं समर्थ होने पर भी छयेगा । यहाँ तक कि चलता साहित्य भी न छुयेगा । ऐसी समझदारीके हनामके रूपमें मुफ्त में साहित्य मंगाते हैं। हालतमें उन लेखकांकी को मौत ही है जो समाजके लिये जो नहीं समझते वे उस लेंगे क्यों? इसलिये सरकारको उपयोगी और जरूरी साहित्य तो लिखते हैं पर वह चलतू ही लेखकोंके पुरस्कृत करनेके समान साहित्यका खरीदना साहित्य नहीं होता।
भी जरुरी है। केन्द्रीय सरकारने इस तरफ ध्यान देकर ___ यह पाश्चय और खंदकी बात है कि उच्च श्रेणीका, बहुत अच्छा कार्य किया है। बहुत कष्टसाध्य, मौलिक साहित्य जो लिखते हैं उनकी तपस्या जयपुर सरकारने इस विषयमें कुछ दूसरे ढंगसे कार्य मार्थिक दृष्टिमे बिलकुल व्यर्थ जाती है, उन्हें प्रकाशक तक किया है, वह लेखकोंको पुरस्तक तो नहीं करती है किन्तु नहीं मिलते और किसी तरह प्रकाशन हां भी जाय तो पुस्तक अच्छी पुस्तकें अपने राज्यकी ११ पुस्तकालयोंके लिये विक्रेता और ग्राहक नहीं मिलते। इसका परिणाम यह खराद लेती है। सत्याश्रमके ८-१० प्रकाशन उसने १५३. हुआ कि हिन्दीमें प्रकाशन बहुत होने पर भी साहित्य १५३ की संख्यामें खरीदी है। ईमान नामक पुस्तक तो निर्माणकी तपस्या नहीं होती, नई-नई खोजें नहीं होती, उसने ४५. की संख्यामें खरीदी थी। यह भी एक अच्छा मनोरंजन कथा साहित्यके सिवाय अन्य उपयोगी और तरीका है। लेकिन अब वह समयमा गया है जब इस जली साहित्य बहुत कम निकलता है और जो निकलता योजना पर म्यापक रूपमें विचार किया जाय जिससे लेखकों