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किरण २]
कोका रासानिक सम्मिश्रण
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सभी कोका भाधार शरीर और मन है, जो दोनों इस पर स्थित सभी बेजान वस्तुओंसे निःमृत होने वाली ही पुद्गल निर्मित है। पारमा स्वयं स्वेच्छासे कर्म नहीं धाराएँ इस पृथ्वीके वायु मंडल में हलन पबन अथवा करता | उसकी स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे किसी बिजली विभिन्न वस्तुओंकी गतियोंसे उत्पन्न होने वाली धाराएँ, के यन्त्रमें बिजली या विद्यत-प्रवाह की। बिजली स्वयं (४) पृथ्वी पर स्थित जीवधारियोंके द्रव्यकर्म द्वारा उनके कुछ नहीं करती केवल उसका प्रवाह यन्त्रों में होते रहनेसे शरीरोंसे निःसृत होने वाली धाराएँ; (३) जीवधारियों के यन्त्रोंकी पनावटके अनुमार वे यन्त्र काम करते हैं। भावकमके कारण उनके मनोप्रदेश और शरीरसे निकलने विद्युत-शक्तिका प्रवाह यन्त्रमें नहानेस वे भी कुछ वानी धाराएँ, (६) स्वयं अपने शरीर के पौलिक भाककाम स्वतः नहीं कर सकते न बगैर माध्यम, साधन और पण-द्वारा खिंच कर पाने वाली धाराएँ (७) जीवधारीके प्राधारके विद्युत प्रवाह ही हो सकता है। इसी तरह भोजन पान द्वारा उसके शरीरमें जाने वाले पुद्गल पदार्थ पारमाका प्राधार साधन और कर्मका माध्यम शरीर है एवं वहाँ शरीरके भीतर उनसे पैदा होने वाली पौद्धिक और शरीरमें चेतनामय कर्म होते रहनेका मूल कारण धाराएँ । इत्यादि। ये सभी प्रकारकी धाराएँ किसी भी शरीरमें भास्माकी विद्यमानता है। जैसे कार्य तो विद्यत- जीवधारीके शरीरमें प्रवेश करती रहती हैं और जीवधारीयन्त्रों द्वारा ही सम्पन होते हैं पर लोकमें कहा जाता है के शरीरके भीतर दण्यकर्म या भावकमसे होने वाले तीन कि बिजलीसे ये काम हो रहे हैं अथवा बिजलीकी शक्ति मध्यम या क्षीण कम्पन-प्रकम्पन शरीरके अन्दरकी वर्गयह काम कर रही है। उसी तरह कर्म तो शरीर ही करता यात्रोंमें और विभिन्न वर्गणात्मक लामों में हलचल है पर आत्माको ही कर्ता कहा जाता है कि प्रात्मा पैदा करते रहते हैं और तब इस पान्तरिक वर्गणात्मक चेतनामय है इसलिए दुख सुखका अनुभव भी शरीर स्थित उद्वलनमें बाहरी वर्गणाओंका मेल मिलाप, संगठन, आत्माको होता है इसीसे उसे 'भोका' भी कहते हैं। पर
तीव, मध्यम या क्षीण-जैसा हो सकता है तथा होता है। होता सभी कुछ है शरीरके सम्बन्धसे ही और पुद्गल
जिस तरह कई रामायनिक द्रव्य मिल कर कोई नये रसाद्वारा ही । इस तरह मात्मा कोका पचमुच कर्ता नहीं
यन नए गुणादि वाले पदार्थ उत्पा करते हैं उसी तरह है। कर्म तो अपने आप म्वाभाविक रूपसे शरीरकी बना.
इन शरीरान्तर्गत वर्गणा पुझोंमें भी इसी तरहके स्थाई वट और योग्यताके अनुसार स्वतः ही हर ओरके बाह्य
या अस्थाई फेर बदल, तबदीजियों और कई रचनाएं हो और अान्तरिक प्रभावोंके अन्तर्गत होते रहते हैं और
जाती हैं। इस प्रकारके रामायनिक सम्मिश्रण या संगठनतज्जन्य अच्छे-बुरे फल भी होते या मिलते रहते हैं जैमा
को ही जैन शास्त्रोंमें 'बन्ध' नाम दिया गया है। जैसे
हाईड्रोजन और प्रौक्सिजन मिल कर जल बन जाता है कर्म होगा उसी अनुमार उसका फल या प्रभाव भी
अथवा गंधक और पाक्सिजन मिलकर गंधकका तेजाब होगा-दूसरेका दुसरा नहीं हो सकता । हाँ, किसी व्यक्ति
या सल्फर डार्क औक्साइड गैम बन जाता है, इत्यादि । के किए कर्मों (इम्यकर्म और भावकर्म) द्वारा उत्पन्न
'बन्ध' को हम अंगरेजीमें या रसायन-शास्त्रकी परिभाषामें हुए पौदगजिक कम्पन-प्रकम्पन, जो उसके शरीरके अन्न
केमिकल कम्पाउन्द । Choomcal compowind) गत वर्गणा निर्मित अन्तः प्रदेशमें होते रहते हैं उनमें
कह सकते हैं। यदि बाहरसे पौलिक प्रायव तो होता बाहरसे आने वाली पौद्गलिक धाराएं मिल मिलाकर
रहे पर श्रान्तरिक पौगलिक रचनाके माथ उसके मेल या या मिल विक्षुहकर प्रापमी क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा क्षणिक,
सम्मिश्रण द्वारा कोई परिवर्तन न हो जाय तो ऐसा मानव अस्थायी या स्थाई परिवर्तनादि उत्पन्न करती है।
बन्धन करने वाला कहा जाता है। बन्धकी तीवता और जैन दर्शन में वर्णित 'प्रास्रब इन बाद्य पौगलिक स्थायित्व ये दोनों हमारे द्रव्य और भावकाँसे उत्पन्न धाराका शरीर प्रदेशमें भाना ही है। प्रावके प्रधान तीव्र या हल्के कम्पन-प्रकम्पनो पर निर्भर करते हैं। इसका मूल कारणों या श्रोतांका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। वएन विशदरूपसे जैन शास्त्रांम मिलेगा। पासबकी पौद्गलिक धाराएँ कई हैं; जैसे (१) दूसरे मानव शरीरको बनाने वाली वर्गणाओंको जैन ज्ञानिग्रहों उपग्रहोंसे पाने वाली धारा (२) इस पृथ्वी और योंने कई भागों में विभक्त किया है। जैसे औदारिक वर्गणा