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तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी
(श्री प्रो. एम. एस. रामस्वामी भायंगर, एम० ए०) श्रीमत्परमगम्भीर। स्याद्वादामोधनाच्छनम् । केवली) ने यह देखकरकि इन्जेनमें बारहवर्षका एकभयंका जीयात्-त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। दुर्भित होने वाला है, अपने १२... शियोंके साथ
भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुभोसे मिलकर दक्षियकी ओर प्रयाण किया । मार्गमें श्रतकेवीको ऐसा बनी है। वैदिकोंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिए सर्व पापी मनुष्यवा. एखका ज्ञानप्रकाश, अरबके पैगम्बर उन्होंने कटवपु नामक देशके पहाड़ पर विश्राम करनेकी (मुहम्मद साहब) का विकट धार्मिक जोश और संगठन माज्ञा दी। यह देश जन, धन, सुवर्ण, मन, गाय, भैस, शक्तिका विरोधी व्यापारिक प्रतिभा और समयानुसार बकरी, आदिसे सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको परिवर्तन शीलता, इनका सबका भारतीय जीवन पर अनु- उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौप दिया और उन्हें पम प्रभाव पवा है और भाजतक भी सारातयोंके विचारों, चोल और पारव्यदेशोंमें उसके माधीन भेजा 'राजावानकार्यों और प्राकांतामोंपर उनका प्रहश्य प्रभाव मौजूद है। कये में लिखा है कि विशाखमुनि तामिल प्रदेश में गये, नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है, राजे महाराजे बहाँ पर अन चैत्यालयों में उपासना की और वहांके निवासी विजय प्राप्त करते हैं और पदजित होते हैं; राजनैतिक जैनियोको उपदेश दिया। इसका तात्पर्य यह है कि भगवा
और सामाजिक मान्दोलनों तथा संस्थामांकी उन्नतिके दिन हुके मरण (अर्थात् २९७ ई०पू०) के पूर्वभी जैनी सुदूर माते हैं और बीत जाते हैं। धार्मिक साम्प्रदायों और दक्षिणमें विद्यमान थे। यद्यपि इस बातका उल्लेख 'राजाविधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियोंके हृदयामें विस्फूर्ति पालथे के अतिरिक और कहीं नहीं मिलता और न कोई रहती है । परन्तु इस सतत परिवर्तनकी कियाके अन्तर्गत अन्य प्रमाणही इसके निर्णय करनेक खिये उपलब्ध होता कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान है, जो हमारे और हैं, परन्तु जब हम इस बातपर विचार करते हैं कि प्रत्येक हमारी सन्तानोंकी सर्वदा के लिए पैतृक सम्पत्ति है। प्रस्तुत धार्मिक सम्प्रदायमें विशेषतः उनके जन्म कालमें प्रचारका लेखमें एक ऐसी जातिके इतिहासको एकत्र करनेका प्रयत्न भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनु किया जायेगा, जो अपने समयमे उच्चपद पर विराजमान चित न होगाक जैनधर्मके पूर्वतर प्रचारक पार्श्वनाथके थी, और इस बात पर भी विचार किया जायेगा कि उस संघ दक्षिणकी और अवश्य गये होंगे । इसके अतिरिक्त जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नतिम कितना जैनियोंके हृदयोंमें ऐसे एकांत वास करनेका भाव सर्वदासे भाग खिया है।
चला पाया है। जहाँ वे संसारके मंझटोंमे दर प्रकृतिकी जैन धर्मकी दक्षिण यात्रा
गोदमें परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । अतएव ऐसे स्थाना यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जासकता कि वामिन
सानामित की खोज में जैनीलांग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये प्रदेशोंमें कब जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भ हुमा। सुदरमें होंगे । महास प्रतिम जो अभी जैनमन्दिरों, गुफाओं और दक्षिण भारत में जैन धर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट वस्तियांके भग्नावशेष और घुस्स पाये जाते हैं वहीं उनके सामग्रीका प्रभाव परंतु दिगम्बकि दक्षिण कानसे इस स्थान से होमे । यह कहाजाता है कि किसी देशका साहित्य इतिहासका प्रारम्भ होता है। अवय बेलगोलाके शिलालेख उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारोंका चित्र है। इसी अब प्रमाणकोटीमें परिणित हो चुके हैं और वीं शती में सिद्धान्तके अनुसार तामिल-साहित्यकी प्रन्थावलीसे हमें देवचन्द्र विरचित 'राजापलिजथे में वर्षिय हैन-इतिहास- इस बातका पता लगता है कि जैनियोंने दक्षिण भारतकी को अब इतिहासज्ञ विद्वान अंसस्य नहीं ठहराते । उपयुसामाजिक एवं धार्मिक संस्थानोंपर कितना प्रभाव दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता किसिब भववाह (भूत- खाहै।