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[किरख. तामिल प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी
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कुरत है, जिसका रचनाकार ईसाकी प्रथम शती निश्चय साहित्य प्रमाण
हो चुका है। 'कुरख' के रचयिताके धार्मिक विचारों पर समम्त तामिल साहित्यको हम तीन युगोंमें विभक
एक प्रसिद सिद्धान्तका जन्म हुमा है। कतिपय विद्वानोश कर सकते है
मह है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । अन्धकमाने (6) संघ काज।
प्रभारम्भमें किसीभी वैदिक देवकी वंदना नहीं की है कि (२) शेवनयनार और वैष्णव अलवार काल। '
उसमें 'कमलगामी' और मर गुण पुक्त' मादि मोका (३) अर्वाचीन काल ।
प्रयोग किया है। इन दोनों उक्लेखोंसे यह पता लगता है इन तीन युगामें रचित ग्रंथोंये तामिल-देशमें जैनियों
ग्रन्थ कर्ता जैन धर्मका अनुयायी था। जैनियोंके मतसे डक जीवन और कार्यका अच्छा पता लगता है।
ग्रन्थ 'एल चरियार' नामक एक जैनाचार्य की रचना है। संघ-काल
और तामिल काव्य 'नीलकेशी' को जैनी भाष्यकार समयतामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुये हैं। दिवाकर मुनि' 'कुरखे को अपना पूज्य अन्य कहता है। प्रथम संघ, मध्यमसंघ, और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐति- यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम मिकहासिक अनुसन्धानसे यह ज्ञात हो गया है किन किन मम- लता कि यदि पहले नही तो कमसे कम साकी पहली यांके अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके १६ शतीमें जैनी लोग सदर दक्षिणमैं पहुँचे थे और वहाँकी कवियोमेंसे 'बल्लिकरार' ने संघका वर्णन किया है। उसके देश भाषामें उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण बोलकपिपर प्रथम और द्वितीय
था। इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शतियांस तामिव संघोंका सदस्य था । आन्तरिक और भाषा सम्बन्धी प्रदेशोमे एक नये मनका प्रचार हुआ, जो बाद्याडम्बरोंसे प्रमाणोके आधार पर अनुमान किया जाता है कि उक रहित और नैतिक सिद्धान्त होने के कारण द्राविडियोके बाह्यण पंद्याकरण ईसास ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान होगा। लिये मनो मुग्धकारी हेमा । भागे चलकर इस धर्मने विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शही निश्चय
दक्षिण भारत पर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी किया है। अन्तिम संघके समयको भाजका इतिहास उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्यो धार्य विचारों लोग ५वीं, ही शतीमें निश्चय करते है। इस प्रकार सब
और आर्य-विद्याका पूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम मतभेदोपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५वीं शतीके पूर्वसे
यह हुमा किवाविढी साहित्यने उत्तर भारतसे प्रासमधीम लेकर ईसाके अनन्तर रवीं शती तकके कालको हम संघ
संदेशकी घोषणा की। मिस्टर फ्रेजरमे अपने "भारतके काल कह सकते हैं। प्रथ हमें इस बात पर विचार करना
साहित्यिक इतिहास" ("A intenare History of है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और
Intu")नामक पुस्तकमें लिखा कि 'यह नियोंही कार्यों पर प्रकाश डालते हैं।
के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये प्रादणे नए साहिसबसे प्रथम 'बोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक माच
ल और वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जेनीलोग कुछ भी की उपासना विधानों पर विचार कामे यह अच्छी तरहप्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उक्लेख करता, परन्तु समझमें भाजायगा कि जैनधर्मने उस देशमें से उसके ग्रंथोंमें जैनियोका कोई वर्णन नहीं है। शायद उस
जमाई। द्वाविशेने अनोखी सम्यवाकी उत्पत्तिकी थी। समय तक जैनी उस देशमें स्थाई रूपसे न बसे होंगे
स्वर्गीय श्री कनक सवाई पिल्लेके अनुसार, उनके धर्ममै अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा। उसी कालमें रचे
बलिदान, भविष्यवाणी और अनन्दोत्पादक वृत्य प्रधान गये 'पथु पाह' और 'पहुथोगाई' नामक काव्योमें भी
कार्य थे । जब माझयोंके प्रथमवलने दषियमें प्रवेश किया उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक ग्रन्थों में प्रामीण
और मदुग या अन्य नगरोंम वास किया तो सम्होंने इन जीवनका वर्णन है।
भाचारोका विरोध किया और अपनी वर्णव्यवस्था और
संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहाँके निवां. दूसरा प्रसिद प्रन्थ महात्मा "त्रिहवल्लुवर' रचिव सियोंने इसका कार विरोध किया। उस समय वर्णव्यव