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अनेकान्त स्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी। निम्नलिखित विवरण तामिव देश स्थित जैवियोंका परन्तु जैनियोंकी उपासना, भादिके विधान प्राह्मणोंकी मिलता है। अपेक्षा सीदे साधे लंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त (१) थोसपियरके समय में जो ईसाके १५० वर्ष पूर्व 'सर्वोच्च और सास्कृष्ट थे। इस लिये द्राविडोंने उन्हें पसंद विधमान था, कदाचित् जना सुदूर दास
विद्यमान था, कदाचित् जैनो सुदूर दक्षिण देशोंमें न पर किया और उनको अपने मण्यमें स्थान दिया यहाँ तक कि पार्य अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त भादर और विश्वास
(२) जैनियोंने सुदूर दक्षिणमें ईसाके अनन्तर प्रथम का स्थान प्रदान किया।
शती में प्रवेश किया हो।
(३) ईसाकी दूसरी और तीसरी शतियोंमें, जिसे करलोचरकाल
तामिन-साहित्यका सर्वोत्तमकान कहते हैं, जैनियोंने भी करके अनन्तर युगमें प्रधानतः जैमियोंकी संरचनामें
अनुपम समति की थी। वामिन-साहित्य अपने विकासको चरमसीमा तक पहुंचा। ईसाकी पांचवीं और छटीं शतियों में जैन धर्म वामिल साहित्यकी उमतिका समय वह सर्वश्रेष्ठ काल
इतना उसत और प्रभावयुक हो चुका था कि वह पायया। बह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभाका समय था, राज्यका राजधर्म हो गया था। पर्याप राजनैतिक-सामयंका समय अभी नहीं पाया था।
शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार कालइसी समय (द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय शिक्षादकारम्' नामक काम्यकी रचना हुई। इसका कर्त्ताचेर राजा इस कालमें वैदिकधर्मको विशिष्ट उति होनेके कारण सेंगुत्तवनका भाई 'इलंगोबदिगाल' था । इस ग्रन्थमें बौद्ध और जैनधर्मों का पासन डगमगा गया था। सम्भव जैन सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयो है कि जैनधर्मके सिद्धान्तोंका दाविती विचारों के साथ और भाचारों भादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःस- मिश्रण हानस एक एसा विचित्र दुरगा मत बन । देह सिद्ध कि उस समय तक अनेक द्वाविहांने जैन
जिसपर चतुर ब्राह्मण प्राचार्योंने अपनी बाण-वर्षा की होगी। धर्मको स्वीकार कर लिया था।
कट्टर अजैन राजाओंके आदेशानुसार, सम्भव है राजकर्मसाकी तीसरी और चौथी शतियों में तामिलदेशमें जैन
चारियोंने धार्मिक अत्याचार भी किये हों। भर्मकी दया जामनेके जिवे हमारे पास काफी सामग्री नहीं
किसी मतका प्रचार और उसकी उमति विशेषतः है। परन्तु इस बातके ययेष्ठ प्रमाण प्रस्तुत हैं कि रवीं
शासकोंकी सहायता पर निर्भर है। जब उनकी सहायता रातीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ाही
द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष उस मतसे अपना उत्साहपूर्ण कार्य किया।
सम्बन्ध तोर लेते हैं। पल्लव और पाण्ड्य-सम्राज्यों में जेन'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार) नामक एक जैन थमें
है धर्मकी भी ठीक यही दशा हुई थी। इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त प्रन्य
इस काल (श्वों शतोके उपरान्त के जैनियोंका वृत्तांत में लिखा है कि सम्बत् १२ विक्रमी (४७० ईसवीं में
सेक्किनलार नामक लेखकके ग्रन्थ 'पेरिय पुराणम्' में पूज्यपादक एक शिष्य बज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मधुरामें एक
मिलता है। उक्त पुस्तकमें शैवनयनार और अन्दारनम्बीके प्रविष-संघकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक- जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रांकी संघ दिगम्बर जैनियोंका मा जो दक्षिण में अपना धर्मप्रचार रचना की है। करने भाये थे।
विज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पड़ते हुए एक उपयोगी यह निश्चय कि पायल राजावोंने उन्हें सब प्रकार ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मावलम्बी से अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'बदियार' कुन् पायडको शैवमतानुयायी किया। यह बात ध्यान देने बामक ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समय में बामणों योग्य है। क्योंकि इस घटनाके प्रनम्तर पापड्य नृपति और नियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। जैनधर्म अनुयायी नहीं रहे। इसके अतिरिक जैनी
इस प्रकार इस संघकालमें रचित प्रन्यों मापार पर लोगोंके प्रति ऐसी निष्पुरता और निर्दयताका व्यवहार