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अनेकान्त
[किरण १०
हिसाबसे जो कार्य हुमा है उसके अनुसार १७और निर्दिष्ट समयके प्रतिकूल है। परन्तु यह मान लिया गया
और ८४ के बीच ३ अप्रैल ०ई० को मृगशिरा है कि कल्कि संवत् ६०० का अभिप्राय बटी सताब्दि है, नक्षत्र था और पूर्व दिवस (चैत्रकी बीसवीं तिथि) शुक्ल संस्कृतका इसके अनुरूप पद है : 'करस्यन्दे ष्टशताख्ये'। परकी पंचमी बग गई थी और रविवारको कुम्भवग्न मी विभवको ८ वर्ष मान लेनेसे १०८ कास्यन्द बनता है बा । परन्तु कलिक संवत् ..ई.सनका १०७२ होता जो कि ईस्वी सन् का १८०बन जाता है। इस गानासे है और इस सन्में चैत्र शुक्ल पक्षकी पंचमी तिथि चैत्रके उपरकी संगति बैठ जाती है और प्रतिमाका स्थापनाकाल वेईसवें दिन शुक्रवार पड़ता है जो उपयुक श्लोकमें अब १८०ई० निश्चित होता है। (हिन्दुस्थान से)
गरीबी क्यों? (गरीबीके दस कारणों की खोज और व्याख्या)
'गरीबी क्यों इस प्रश्नका सीधा-सा और बंधाबंधाया कि एक आदेमीका शोषण इतना अधिक हो जाता है कि उत्तर दिया जाता है 'पूजीवादी शोषणके कारण गरीबी वह भादमियोको गरीब करदे। है। इस उत्तरमें सचाई है और काफी सचाई है, फिर भी मैं एक बड़ी भारी कपडेकी मित्रमें गया। पता भी कितने लोग इस सचाईका मर्म समझते हैं मैं नहीं कह खगा कि यहाँ साधारणसे साधारण मजदूरको कम-से-कम सकता। जीवादसे गरीबी क्यों माती है इसकी बानबीन ७५) माह मिलता है। और किसी किसीको १००) माह भी शायद ही कोई करता हो। महर्षि मार्सने मुनाफा से भी अधिक मिलता है। तब मैंने सोचा कि इन मजदूरों पा अतिरिक्त मूल्यका जो विश्लेषण किया है वही रट- की टोटल आमदनी प्रति व्यक्ति १०.) माहवार सममना स्टाया उत्तर बहुतसे लोग दुहरा देते हैं। पर यह सिर्फ चाहिये। दिशा-निर्देश है उससे गरीबीके सब या पर्याप्त कारयों पर अब मान लीजिये कि मजदूर तो १००) माह पाता है प्रकाश नहीं पड़ता, सिर्फ गरीबीके विष-वृषके बीजका और मालिक पच्चीस हजार रुपया माह लेकर घोर शोषण पता लगता है। पर वह बीज अंकुरित कैसा होता है और अन्याय करता है। अगर मालिक यह पच्चीस हजार फूलता फलता कैसे है इसका पता बहुतोंको नहीं है। रुपया न ले और यह रुपया मजदूरों में बंट जाय तो पाँच
साधारणतः शोषकों में मिलमाखिकों, बैंकरों या बडे हजार मजदूरों पच्चीस हजार रुपवा बंटनेसे हरएक मजकारखानेदारोंको गिना जाता है, और यह ठीक भी है। दूरको सौ के बदले एक सौ पाँच रुपया माहवार मिलने बोटे-छोटे कारखाने जिनमें दस-दस पाँच-पाँच भादमी काम बगे । निःसन्देह इससे मजदूरको बामदानीमें तो अन्तर करते हैं, उनमें माखिक तो उतना ही कमा पाता है जितना पड़ेगा। पर क्या वह अन्तर इतना बड़ा है कि...) में कि उस कारखाने में एक मैनेजर रख दिया जाय और उसे मजदूरको गरीब कह दिया जाय और १०५ में अमीर वेतन दिया जाय । जीवादी प्रथा न होने पर भी उन कह दिया जाय ? क्या देशको प्रमोरीका पावर्शमें और छोटे छोटे कारखानों में मजदूरोंको बामदानीका उतना ही प्राजकी गरीबी में सिर्फ पाँच फीसदीका ही फर्क है। हिस्सा मिलेगा जितना माज मिलता है। इसलिये उनका यदि देशके अमीरोंकी सब सम्पत्ति गरीबोंमें बांट दी शोषकों में गिनमा ठीक नहीं । बाकी किसान, मजदूर, जाय तब भी क्या गरीबोंकी सम्पत्ति ५ फीसदीसे अधिक दुकानदार, अध्यापक, लेखक, कलाकारमादिमीयोषकों- बढ़ सकती है। अगर हम पैतीस करोड़ रुपया र साल में नहीं गिने जाते और भी यह टीका बरिक इनमेंसे अमीरोंसे छोनकर पैंतीस करोड़ गरीबोंमें बांट दे तो सबको अधिकाँश शोषित ही होते हैं। सच पूछा जाय तो इस एक-एक रुपया मिल जायगा । इस प्रकार साबमें एक-एक प्रकार देसकी जनतामें शोषकोंका अनुपात हजारमें एकके रुपएकी भामदनीसे क्या गरीबी अमीरोमें बदल जाएगी। हिसावले पड़ता है। ऐसी हालतमें यह कहना कठिन है बैंतीस करोड़की बात जाने दें पर बह रुपया सिर्फ सादे