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किरण ३)
गीय जैन पुरावृत्त
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कालसे जो अविसम्यादित श्रेष्ठता व भोग करते मारहे पुनः समाजके, थर्मके, एवं पापार-व्यवहारके नेता हो गये थे, उसके मूल में कुठाराघात हया-सब जातियां समान और राज्यको उपदेश देकर चलाने लगे। स्वाधीनता पाकर कौन अब उन ब्राह्मणोंको पहलेकी तरह जब शुगवंश वैदिक क्रिया-काण्ड प्रचार द्वारा सन्मान और भद्धा करेंगे। इस प्रकारको धारणात उनके अहिंसाधर्मका मूलोच्छेद करने में अग्रेसर हुश्रा सब अहिंसामनमें दारुण विद्वेषका संचार हो गया। इसके बाद मौर्य- धर्म पृष्ठगषक बौद्व और जैनाचार्यगण भी निश्चिन्त, सम्राट ने नव दण्ड-समता और व्यवहार समताकी रक्षाके और निश्चेष्ट महीं थे। बौद्धधर्मानुरक्त यवन नरपति लिए विधि-व्यवस्था चारित करने लगे तब उस विद्वेषा- मिलिंदने शुगाधिकार पर आक्रमण किया पर वे सफल ग्निमें उपयुक अनिल मंचार हा गया । ब्रह्मण वर्मके न हो सके । जैनधर्मी कलिंगाधिपति खारवेलने (ई पूर्व०. प्राधान्य कालमें अपराधके सम्बन्ध में ब्राह्मणोको एक प्रकार १७१) मगर पर आक्रमण किया और पुष्यमित्रको स्वतन्त्रता थी-ब्राह्मया चाहे जितना गर्हित अपराध कर पराजित कर पुनः जनधर्मकी प्रतिष्ठा की। तो भी उनको कभी प्राण दण्ड नहीं मिलता था, न उनक प्रायः २३५ ई०पू० से ७८ ईम्वी पूर्वान्द पर्यंत प्रार्यालिये किसी प्रकारका शारीरिक दण्ड था। माक्षी (गवाही) वर्तमें शुग और कान्व वश के अधिकार काल में ब्राह्मणोंका देनेके लिए उनको धर्माधिकरणमे उपस्थित होनेके लिये प्राधान्य प्रतिहत था। इसके पहले चौद और जनाधिकारक बाध्य नहीं किया जा सकता था। साक्षं। देने पर उनको समय जो प्रबल थे,इस समय उसको पूर्व प्रति-पत्तिका बहुत जिरह नहीं कर सकते थे। किन्तु व्यवहार समताकी कुछ हास हा गया था। उसीके साथ मानूम होता है कि प्रतिष्ठा कर अशांकने उनको इन सब चिरन्तन अधिक- राजूकगण (कायस्थ) भी पूर्व सन्मानच्युत और ब्राह्मणोंके रॉसे वंचित कर दिया। अब तो उनको भी घृणित, अस्पृ. विद्वेष भाजन हो गये। श्य, अनार्य एवं शूद्र प्रभृतोके साथ समान भावसं शूला- यह पहले लिखा जा चुका है कि जैनोंके प्राचीन रोहण और कारावासादि क्लेश सह्य करने पड़गे। बम प्रन्यांसे यह मालूम होता है कि खुष्ट जन्मके ६०० वर्ष इन सब बागमे अशांकडा वंश ब्राह्मणांका चतु यूल हो पूर्व २१ वे तीर्थकर पार्श्वनाथ स्वामीने पुण्ड, रात, और गया । और उपके धंसके लिए वे बद्धपरिका हा गये। ताम्रलिप्त प्रदेशमें वैदिक-कर्मकाण्डके प्रतिकूल "चातुर्याम अशोककी मृत्यु के बाद भार्यराजाके प्रधान मंगापनि पुष्य- धर्मका" प्रचार किया था और उनके पहले श्री कृष्णके मित्र को राजस्वका लाभ दिलाकर गजाके विरुद्ध ब्राह्मणानं कुटुम्बी ०२ तीर्थकर नेमिनाथने अंम बंगमें भिधर्म उत्तेजित कर दिया । पुलमित्र परम ब्राह्मण भक्त था । एक प्रचार किया था। बुर और श्रीतम नीर्थंकर महावीरबार ग्रीक जागान जब पश्चिम प्रान्त पर श्राक्रममा किया स्वामीने भी यथाक्रम अंग और राद देश में अपने २ धमन था तब पुष्यमित्र उनको पराजित कर जब पाटक्षीपुत्र प्रचार किये थे। ये सभी वैदिक आर्यधर्म विरोधी थे लौटा, तय मौर्याधिप वृहद्रथने उसके अभ्यर्थनार्थ और इनके प्रभावमारभारतका अनेक अंश चैदिका. नगरके बाहर एक विराट सैन्य-प्रदर्शनी की व्यवस्था की। चारविहीन था- इस कारणसं यहाँ अति-पूर्वकाल में ब्राह्मण उत्सवक बीचमें ही किस प्रकार किसीका एक तीर प्रभाव नहीं था। यह कहना अग्युकि नहीं होगा कि महाराजके ललाटमें लगा और उसी जगह उनका विधगण अंग बंगके प्रति अति घृणामे दृष्टिपात कर चुके देहान्त हो गया।
है। इसी कारणसं ग्राह्मणांक ग्रन्या में अंग बंगको सुप्राचीन ब्राह्मणधर्मके भक्त - संवक पुष्यमित्रने इस प्रकार वार्ताको स्थान नहीं मिला और जो जैन बौद्धादिकान मौर्य वंशका ध्यंम साधन कर भारतके सिंहासन पर उपविष्ट लिखा था यह मब सम्भवतः ब्राह्मणाभ्युदकं ममा प्रयत्नाहुए और तत्काल ही पूर्वब्राह्मण-धर्मको प्रतिक्रिया प्रारम्भ भावकै कारण विलुप्त हो गया है। उसी अतीतकालकी दुई जहाँसे अहियाधर्म घोषित हुआ था उसी पाटली- वीणम्मृति प्रचलिन एक दो बौद्ध और जैन प्रथों में पुत्रके वक्षस्थल पर बैठकर पुष्यमित्रने एक विराट अश्वमेध उपलब्ध होती है। उनमें मालूम होता है कियज्ञका अनुष्ठान कर अहिसाधर्मके विरुद्ध घोषणा की महावीर स्वामीने अंग देशके चम्पा नगरी में एक कायस्थके और पुष्यमित्रके आधिपत्य विस्तारके साथ २ ब्राह्मणगण गृहमें एक बार पारणा किया था। बिम्बमारके पुत्र