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________________ किरण ३] अनेकान्त [१०४ इतिहास है। अकवरके प्रधान सभासद् और एनहासिक ही मनमें मांचता है कि धात्री मेरे शिशुको भली प्रकार अबुलफज़लने लिखा है कि मुसलमान श्रागमनये पूर्व रखेगी, मैं भी उसी प्रकार जानपदगणके मंगल और सुखके १९३३ वर्षोंसे यह वनभूमि भिन्न २ स्वाधीन राजवंशोके लिये राजकास कार्य करवाता हैं। निर्मलतामे एवं शान्तिशासनाधीन थी। अर्थात् एक दिन गौड़ बङ्ग कायस्थ बांध कर विमन न होकर वे अपने कामको कर सकेंगे। प्रधान स्थान था । इसी लिए मैने पुरस्कार और दण्डविधान में राजूकगणोंको राजकीय लेख्यविभागमें जो पुरुषानुक्रमसे नियोजित सम्पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की है। मेरा अभिप्राय क्या है? होते रहे हैं. समय पाकर उन्होंने ही 'कायस्थाख्या' वह यह है कि राजकीय कार्य में वे समता दिखावंगे, दण्डप्राप्त की यी । सामान्य नालनबीसी किगनी : Clerk) विधान में भी समता दिखावेगे।" के कार्य से लगाकर राजाधिकरणका राज मभाके संबि राजूकगणांका किस प्रकार प्रभाव था, अशोक लिपिमे विग्रहमादिका कार्य पुरुषानुक्रममें जिनको एकान वृत्ति उमका स्पष्ट पाभास मिलजाता है । चूल्हर माहबने राजहो गई थी वे ही कायस्थ कहलाने लगे गणांको "कायस्थ" माना है। मेदिनीपुर यामी एक श्रेणीके प्राचीन लेखमालामें यह जाति लाजू कया राजूक, श्री कायस्थ पाज भी "राजू" नामसे कहे जाते हैं। करण, कणिक, कायस्थ ठकुर और श्री करीण ठकुर प्रोफेसर जकोबीके जैन प्राकृतमें लाजूक या राजूरू इत्यादि मंज्ञापे अभिहित हुई । मौर्यसम्राट अशोककी सूचक रज्जू शब्द कल्पसूक्षमे मिला है जिसका अर्थ है दिन्जी अलाहाबाद रधिया, मथिया, और रामपुर इत्यादि लेखक किराणी (Clerk)| राजूक भौर कायस्थ दोनों ह। स्थानासे प्राप्त प्रशोकम्तम्लीमे उत्कीर्ण धर्म लिपिम शब्द प्राचीन शास्त्रामें एकार्थवाची हैं। मुभांसद्ध चूल्हर राजूकॉका परिचय है-उपका अनुवाद निम्नलिखित है: साहबने लिखा है कि अशोकको उपरोक्त स्तम्भ लिपि " देवगणोंके प्रिय प्रियदशिराजा इस प्रकार कहते जब प्रचारित हुई थी उस समय प्रियदर्शीने बौद्ध-धर्म है-मेरे अभिषेकके षड्विंशति वर्ष पश्चात् यह धर्मलिपी ग्रहण नहीं किया था। और तब वे ब्राह्मण, बौद्ध, और (मेरे आदेशसे) लिपिबद्ध हुई। मेरे राजूकगण बहु जैनांका समभावसे देखते थे। ऐसी अवस्थामें राजूकलोगोंके मध्यमें शतमहन्त्र गाणगणोंके मध्यमें शासन ___ गणाको जो सम्मान और अधिकार प्रदान किया था वह कर्तृरूपसे प्रतिष्ठित हुए हैं। उनको पुरस्कार और दड पूर्व प्रथाका ही अनुवर्तन था। विधान करनेकी पूर्ण स्वाधीनता मैंने दी है। क्यों? जिसमें पर्वत पर खोदित अशोकके तृतीय अनुश सनसे जाना राजूकगण निविघ्नता और निर्भयतासे अपना कार्य कर । जाता है कि राजूकगण केवल शासन वा राजस्व विभागमें मके, जनपदके प्रजा साधारणाके हित और सुख विधान हो मर्वेसर्वा नहीं थे किन्तु धर्मविभागमें भी उनका विशेष कर सकें एवं अनुग्रह कर सकें। किस प्रकार प्रजागण हाथ पा गया था (जब अशोक बौद्ध धर्मानुयायी हो गया सुग्बी एवं दुम्बी होगी यह वे जानते है। वजन और था) और वे सम्राट अशोकवारा धर्म महामात्यपदमे जनपदकी धर्मानुसार उपदेश करेंगे क्यों ? इस कार्यमे अधिष्ठित हो गये थे। अधिक सम्भव है कि जिस दिनसे वे इस लोक और परलोक परन सुग्ब लाम कर सकेंगे। राजकगण कराध्यक्ष धर्माध्यक्ष हुए उसी दिनसे ब्राह्मण राजूकसर्वदा ही मरी सेवा करनेके अभिलाषी है मेरे अपर शाम्बकारगणांकी विषष्टि में पड़ गये और इसी कारण (अन्य) कर्मचारीगण भी. जो मेरे अभिप्रायको जानते सारे पुराणमें (अध्याय १९) राजोपसंयक धर्माचार्य है. मेरे कार्य करेंगे और वे भी प्रजागको इस प्रकार कायस्थगण अपात य बना दिये गये (अध्याय १६ प्रादश दंगे कि जिसमें राजूकमण मेरे अनुग्रह लाभमें विद्वानांके मतम मौर्यसम्राट अशोक वृद्धावस्थामें समर्थ हो सके। जिस प्रकार कोई व्यक्ति उपयुक्त धात्तीके आत्ताक यद्यपि कहर धर्मानुयायी थे तो भी सब धर्मकि प्रति हाथमें शिशुको न्यरत कर शान्ति बोध करता है और मन समभावसं सम्मान प्रदर्शन करते थे और प्रजाको धर्मसम्ब* बंगेर जातीय इतिहाम-श्री नगेन्द्रनाथ वसु धमे पूर्ण स्वाधीनता थी। साधारण प्रजावर्ग अशोकके (विश्वकोष संकलयिता प्राच्य विद्या महार्णव-सिद्धान्त म्यवहारसं सन्तुष्ट होने पर भी ब्राह्मण धर्मके नेता ब्राह्मणवारिधि प्रणीत-राजन्यकाण्ड, कायस्थकापड. प्रथमांश । गण कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकते थे। कारण स्मरणातीत
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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