________________
१०६]
भनेकान्त
[किरण ३
"राजकाना
अजातशत्रुमे जब चम्पाको राजधानी बनाया था उस मादित्य, चन्द्र, देव, दत्त, मित्र, घोष, सेन, कुण्ड, समय वहाँ बौद्ध प्रभाव था किन्तु अलदिनों बाद पालित, भोग, भुजि नन्दी, नाग प्रभृति उपाधि प्राचीन गणधर सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीके साथ चम्पामें पाकर कानसे बंगालके कायस्थ समाजमें प्रचलित हैं। इनके जैनधर्म प्रचार किया था । इसके बाद जम्बूम्बामीके पूर्व पुरुष पश्चिम भारतसे उपरांत जिस १ पदवीयुक्त होकर शिष्य वरसगोत्र सम्भूत स्वयंभव यहाँ पाये और उनके पाये थे. उनके वंशधर भी उसी उसी पदवीको व्यवहार निकट जैनधर्मका उपदेश श्रवण कर अनेक लोग जैनधर्ममें करते रहे हैं और आज भी वे उपाधि यहां प्रचलित हैं। दीपित हुए थे। इसके बाद अंनिम श्रुतकेवल्ली भद्रबाहुका अंतमें वसु महाशयने लिखा है कि अति-पूर्वागत कायस्थअभ्युदय हुमा। समस्त भारतमें इसके शिष्य प्रशिष्य थे। गया इस देशकी जलवायु और साम्प्रदायिक धर्मप्रभाबके इनके काश्यप गोत्रीय चार प्रधान शिष्य थे उनमें प्रधान गुरसे अधिकांश जैन, बौद्ध वा शैवसमाज मुक हो गए शिष्य गोदास वे इन गोदाससे चार शाखाओंकी सृष्टि थे। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि वर्तमान कायस्थों में हुई, इनका माम था ताम्रलिप्तिका कोटीवर्षीया पुण्ड- अनेक प्राचीन प्राचीन जैन धर्मावलम्बी है। वर्द्धनीवा और दासीकटीया। अतिप्राचीन काल में इन
चीन काल में इन धर्मशर्माभ्युदयके कर्ता महाकवि हरिश्चन्द्र न चार शाखाांके नामसे यह प्रतिपक्ष होता है कि दक्षिण, ...
दोषण, कायस्थ थे। उन्होंने अपने वंशपरिचयमें अपनेको" उत्तर, पूर्व और पश्चिम समस्त वंगमें जैनांकी शास्त्रा प्रशाखा विस्तृत हुई थी। इससे स्पष्ट होता है कि प्रति जागर
नोमकोंके वंशमें कायस्थकुल का लिखा है । "नोमकानां प्राचीनकाल राद, बंगमें विशेषतासे जैन प्रभाव और
वंशः" पाठ अशुद्ध मालूम होता है इसकी जगह उसके साथ बौद्ध संभव था। .
"राजकानां वंशः" पाठ होना चाहिए। उत्तर और पश्चिम बंगमें गुप्ताधिकार विस्तारके
हरिश्चन्द्रने काव्यकी प्रशंसा करते हुए.."लिखा साथ वैदिक और पौराणिक मत प्रचलित होने पर भी
है कि "महाहरिश्चन्द्रस्य गद्य बन्यो नृपावने" इनकी पूर्व और दक्षिण बंगमें बहुत समय तक जैन निम्रन्थ
दूसरी कृति 'जीव'धर चम्पू" है। जो गद्य पद्यमें लिखा और बौद्ध श्रमणोंकी लीलास्थली कही जाती थी।
हुमा सुन्दर काव्य ग्रन्थ है। जैन और बौद्ध प्रन्थों में ब्रह्मदत्त नृपतिका नाम मिलता
यशोधाचरित अथवा 'दयासुन्दर विधान काव्य' हैं। अबुल फजलकी कथाका विश्वास करनेसे उनको
नामक ग्रन्धके कर्ता कवि पद्मनाम कायस्थ भी जैनधर्मके कायस्थ नृपति मानना पड़ेगा। अंग और पश्चिम बंग
प्रतिपालक थे। इन्होंने ग्वालियरके तंबरवंशी राजा वीरमउनके अधिकारसे निकलकर श्रेणिक राजाके माधीन हो
देवके राज्यकालमें (सन् १४०१ से १४२५ के मध्यवर्ती जाने पर ब्रह्मदत्तने पूर्व वंग और दक्षिण राढ़को प्राधित
समय) भट्टारक - गुणकीनिके उपदंशसे वीरमदेवके किया। उम सुप्राचीनकालसे लगाकर गुप्तशासनके पूर्व
मन्त्री कुशराज जैसवालके अनुरोधसे "यशोधरचरित्रकी" पर्यन्त यहाँ के कायस्थगण या तो जैन या बौद-धर्मके
रचना की थी। पक्षपाती थे। बहशत वर्षोंमे जिस धर्मका प्रभाव जिस समाजपर प्राधिपत्य विस्तार कर चुका था, वह मूलधर्म
विजयनाथ माथुर रोडे (तक्षकपुर के निवासी थे। विलुप्त होनेपर भी समाजके स्तर स्तरम प्रस्तररेखावत- उन्हान जयपुरक दावान श्री जयचन्दजीक सुपुत्र कृपार उसका अपना चिन्ह अवश्य रह जायेगा। इमो कारबसे अंर श्री ज्ञानजीकी इच्छानुसार सं. १६६१ में म. यहाँकी उस पूर्वतन कायस्थ समाजके अनन्तर जाल सकलकीतिक "वर मानपुराण' का दिन्दीमें पचानवाद वर्तमान समाजमें भी उसकी क्षीण स्मृतिका अत्यन्ता- किया था। भाव नहीं हुआ।
मशः