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________________ किरण] जैन साहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन [२५७ समय ही ठीक है। जबकि विद्याम अनेक प्रमाणोंके भाधार सं०७३३ के विद्वान होते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु पर कुन्दकुन्दाचार्यका समय विक्रमकी पहली शताब्दी उन्होंने अपनी निशीथचुणिं और नन्दीचूणिमें समन्तभद्रघोषित कर रहे है। के कई शताब्दी बाद होनेवाले टीकाकार अकलंकदेवके ताखिका मित्रसेन दिवाकरको वि.....के सिदिनिश्चय' का स्पष्ट उल्लेख किया है। यह सब होते मध्य रक्या है और उन्हें सम्मतितका न्यायावतार तथा हुए भी जिनदासगणी महत्तरके बाद समन्तभद्रका नामोद्वात्रिंशकामोंका कर्ता सूचित किया है, जबकि जैन न्यायके एलेख करना कैसे संगत एवं रष्टि विकार विहीन कहा जा सर्जक समन्तभद्राचार्यको वि.... में जिनदास महत्तरके सकता है। और यह अवलोकन तो और भी अधिक रष्टि भी बाद रक्खा है। यह सब देखकर बदाही भाश्चर्य और विकारका सूचक है जो समन्तभद्रको पूज्यपादसे भी... खेद होता है; क्योंकि प्रसिद्ध ऐतिहामिक विद्वान पं० जुगल- वर्ष पीछेका विद्वान प्रकट करता है। जबकि पूज्यपाद स्वयं किशोरनी मुख्तारने अपने 'सम्मनिसूत्र और सिद्धसेन' अपने जेनेन्द्र व्याकरणमें समन्तभद्रका उल्लेख 'चतुष्टयं नामके विस्तृत निबन्धमें, अनेक प्रमाणोके आधारसे यह समन्तभद्रस्य' इस सूत्रके द्वारा करते है। सिन्दू किया है कि प्रस्तुत प्रन्योंके कर्ता एक सिद्धसेन नहीं इसी तरह प्राचार्य प्रकलंकदेवको जो हरिभद्र के बाद किन्तु तीन हुए हैं जिनमें प्रथमादि पाँच द्वात्रिंशिकाओंके अन्त में रक्खा है वह किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा कर्ता प्रथम, सन्मतिसूत्रके कर्ता द्वितीय और न्यायावतारके सकता, क्योंकि हरिभद्रकी कृतियों पर अकलंकदेवका स्पष्ट कर्ता तृतीय सिद्धसेन हैं और इन तीनोंका समय भिन्न भिन्न प्रभाव ही अंकित नहीं है। किन्तु हरिभद्र ने अपनी भनेहै। साथ ही यह भी बतलाया है कि सन्मतितर्कके कर्ता कान्तजय पताका' में अकलंकदेवके न्यायका उल्लेख भी सिद्धसेन बादको 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित किये जाते किया है। ऐसी स्थितिमें अकलंकदेवको हरिभद्रका थे, वे दिगम्बर विद्वान हैं, प्रथमादि कुछ द्वात्रिशिकाएँ उत्तर वर्ती बतलाना कितना जि दोषको लिये हुए है उसे जिन सिद्धसेनकी बनाई हुई हैं उनपर समन्तभद्रके ग्रन्थोंका बतबानेकी जरूरत नहीं रहती! स्पष्ट प्रभाव ही लक्षित नहीं होता बल्कि प्रथमद्वात्रिंशिका अकलंक तो जिनदासगणी महत्तरसे भी पूर्ववर्ती है; में तो 'मर्वज्ञपरीक्षाक्षमा' जैसे शब्दो द्वारा समन्तभद्रका पोजिम भद्रका क्योंकि जिनदासने अपनी चुणियों में उनके 'सिद्धिविनिश्चय' उल्लख तक किया है और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है यह सर्वविदित है। और श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान हैं जिनका ममय पात्रकेशरी साथ ही यह भी निश्चित है कि प्रकलंकका वि० सं०७.. और बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिके बाद का है और समन्तभद्र मे यौद्धांस बहुत बड़ा बाद हुआ था, जिसमें उन्होंने विक्रमकी दूसरी-तीसरी शतादोके विद्वान है; जिस समयको विजय प्राप्त की थी। इन सब ऐतिहासिक साक्षियोंके श्वेताम्बर ग्रन्थोंका भी समर्थन प्राप्त है। न्यायावतारके होते हुए भी बलात् उन्हें हरिभद्रका उत्तरवर्ती विद्वान कर्तान तो समन्तभद्र के 'रस्नकरण्डश्रावकाचार' का 'प्राप्तो प्रकट करना प्राचीन भाचार्योको अर्वाचीन और पर्वाचीनों पज्ञ' नामका पथ भी अपने प्रथम अपनाया है । को प्राचीन प्रकट करनेकी दूषित दृष्टि अथवा नीतिका ही मुख्तार श्री के उक्त निबन्धका कहींसे भी कोई प्रतिवाद परिणाम जान पड़ता है। अकलंकदेवके विषयमें अधिक वर्ष हो जाने पर भी देखने में नहीं पाया। ऐसी स्थितिमें भी समन्तभद्रको जान बूम कर वीं सदीका विद्वान तिषु नन्द्यध्ययन चूर्णि समाप्ता। देखो भारतीय विचा वर्ष सूचित किया है. इतना ही नहीं किन्तु जिनदासगणी मह- ३ अंक में प्रकाशित जिनभद्माश्रमबा' नामका लेख तरके बादका भी विद्वान सूचित किया है, जबकि जिनदास- +'इति अकलंक म्यायानुसारि चेनोहरं क्या' भनेगणीने जो श्वेताम्बर विद्वान हैं, अपनी नन्दीचूर्णि शक कान्त जयपताका पृष्ठ २०२, विशेषके खिये न्यायकुमुदसंवत् २८८ में बनाकर समाप्त की है। इससे वे वि० चन्द्र के प्रथम भागकी प्रस्तावना देखें। xदेखो, 'सम्मतिसिइसेनाङ्ग' नामका भनेकान्तका विक्रमार्क-शकान्दीय-शत-सप्त-प्रमानुषि । विशेषांक वर्ष है कि ११-१२ कालेऽकलंक यतिनो बौदादो महानभूत ॥ 'शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशेतषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनव -अकलंक चरित
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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