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________________ जैनसाहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ] 'भ्रमब' के पांचवें वर्षके द्वितीय अंकमें जैनसाहित्यका न मान कर उन्हें यों ही मन माने ढंगसं अर्वाचीन प्रकट विहंगावलोकन' नामका एक तालिका-लेख डाक्टर इन्द्रके करना और अर्वाचीनोंको प्राचीन बतलाना क्या उचित कहा नामसे प्रकाशित दुपा है। उसको देखनेसं पता चलता है जा सकता है। आज यह लेख इसा विषय पर विचार करनेके कि जैन साहित्यका यह विहंगवलोकन बड़ा ही दोषपूर्ण लिये लिखा जाता है। प्राशा है डाक्टर साहब योजना है। उसमें अहमदाबादकी गत अक्तूबर मासमें होने वाली संयुक्त मत्रोंके नाते उस पर गहरा विचार करनेकी कृपा जैन साहित्य-इतिहास-परिषदके असाम्प्रदायिक प्रस्तावकी करेंगे। बहुत कुछ अवहेलना की गई है। डा. इन्द्रकं द्वारा निर्दिष्ट विहंगावलोकनको उस तालिका ३४वें नम्बर पर उस तालिकामें कितनेही अन्यकारोंको आगे पीछे कर दिया हरिभद्र के बाद जो हरिषेणका नामोल्लेख किया गया है है, कितनोंको विषकुल ही छोड़ दिया है और कितनांका वह गलत है; क्योंकि पापुराणके कर्ता हरिषेण नहीं हैं समय-निर्देश गलत रूपमें उपस्थित किया है। कह नहीं और न उनका समय ही वि० सं० ८०० हो सकता है। सकते कि यह सब कार्या० इन्द्रने स्वयं किया है या हरिषेण नामके दो विद्वानोंका उल्लेख मिलता है जिनमें किसी निर्दिष्ट योजनाका वह परिणाम है, पर इतना तो प्रथम हरिषेण 'हरिषेण कथाकोश' के कर्ता है जिसे उन्होंने स्पष्ट मसकता है कि उसका उद्देश्य समन्तभद्र और शक स. ८५३ (वि. सं. ७८८) मे विनायकपालक अकलंक जैसे न्यायसर्जक और प्रतिष्ठापक प्राचीन विद्वानो राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है। दूसरे हरिषेण वे को अर्वाचीन और अपने अर्वाचीन विद्वानोंको प्राचीन है जिन्होंने वि० सं० १.४४ में 'धर्मपरीक्षा' नामका ग्रन्थ सिद्ध करना रहा है। इससे जहाँ ऐतिहासिक तथ्यांको अपभ्रंश भापामें बनार समाप्त किया है। इन दोनों हानि पहुँचेगी और अनेक नूतन प्रान्त धारणाओंकी सृष्टि हरिपंणोंमसे वहाँ कोई भी विवक्षित नहीं है। वहीं हरिषेण होगी, वहाँ ऊपरसे असाम्प्रदायिक लगने वाली अन्तः की जगह रविषेण होना चाहिए । उस तालिकामं जो यह साम्प्रदायिक नीतिका उद्भावन भी हो जावेगा। तालिका गाती हुई है उसका कारण फतेचन्द बेलानीको व: में जा नीति वर्ती गई है उसमें अन्तः साम्प्रदायिक दृष्टिकोण पुस्तक जान पड़ती है जिसका नाम 'जैनग्रन्थ और अन्यभने प्रकार सन्निहित है और उसके द्वारा साहित्यिकाको कार' है, उपमें भी हरिभद्र के बाद 'पप्रचारत (पद्मपुराण) साहित्यके से इतिहास निर्माण की दृष्टि ही नहीं दी गई के कांको हरिषेण लिखा है उस पुस्तकमें दूसरे भी बल्कि एक प्रकारसे प्रेरणा भी की गई है। जबकि हम जोग बहुतसं गलत उल्लेख है, सैकड़ो ग्रन्थ तथा अन्य कार छूटे उस साम्प्रदायिकताम ऊपर उटना चाहते हैं जो पतनका हुए हैं। डाक्टर साहबने उक्त तालिका उसी परसे बनाई कारण है तब ऐसी नीति समुचित केसे कही जा सकती है ? जान पड़ती है, इसी दोनों में बहुत कुछ समानता पाई इतिहासज्ञोंको तो उदार और असाम्प्रदायिक होने के साथ जाती है तालिका बनाते समय उस पर कोई खास ध्यान साथ वस्तुतत्त्वक निर्णयमें दृष्टिको शुद्ध एवं निष्पक्ष रखने । दिया गया मालूम नहीं होता, अन्यथा ऐसी गल्तीकी की बड़ी जरूरत है, उसीको जुटाना चाहिय, बिना उसके गुमरावृत्ति न होती इतिहासमें प्रामाणिकता नहीं पा सकती । अप्रामाणिक उक्त तालिका डा. इन्द्रने कषायपाहुर और षट्खण्डाइतिहास बहुत कुछ आपत्तियों-विप्रतिपत्तियोंका घर बन गमके का प्राचार्य गुणधर भूतवली पुप्पदन्त के साथ सकता है जिनसे व्यर्थ ही समाजकी शक्तियांका क्षय होना प्राचार्य कुन्दकुन्दको विक्रमकी तीसरी शताब्दीका विद्वान सम्भव है। प्रकट किया है और उनके बाद मास्वातिको रक्खा है। यहाँ यह विचारणीय कि जिन पाचार्यों का समय उमास्वातिकाबादमें रखना तो ठीक है परंतु कुन्दकुन्दादिका ऐतिहासिक विद्वान प्रायः एक मतसे निरूपण करते हैं उसे समय ठीक नहीं है और न उमास्वातिसे पहले विमलका
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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