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________________ गोमटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवाद [२५५ - अथवा श्रीजिनबीर वा श्रीसिद वा सु-समय सही। हचर गाथा सुखकार, शाकमा पदमकार। वा सर्व सिदसह अथवा प्ररूपणा जियकी कही। गुणस्थान प्राधिकार पह, परम भयो प्रथम सुभगेह। 'पुन भाषाटीका तासुकी मम्यज्ञानजुचन्द्रका इति श्रीनेमिचन्द सिदान्तचक्रवर्ति विरचित गोम्स श्री सेठ जु टोडरमल्लजी रची भरण श्रमरन्द्रका ८६॥ दसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ताकी जीवतत्वप्रदीपिका चा श्री नेमिचन्द्रवरसूर, सबही पूर्वकथित गुणपूर । नाम संस्कृत टीका वा लम्पक ज्ञानर्चान्द्रका माम भाषातिन युग चरणोज सिरनाय, जीवपरूपण कहीं सो गाय ॥३॥ टीकाके भनुमार मूलगायार्थ बन्द पन्ध ब.बाबीचा वग्रन्थमें गुणस्थान प्ररूपणानाम प्रथमोऽधिकार: m मिछत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि। रएट्ठ पमाए पढमा सरणा रणहि तत्स्थ कारणा भावा । हिण धम्मं रोचेदिहु महुरंखु रसं जहा जुरदो॥ सेसा कम्मनिछत्ते गुवयारे णस्थि ण हि कज्जे ॥६॥ अनुभवता मिथ्यात्व सदोष, है विपरीत वर्शनी जीव । परिण-अप्रमत्त चादिक गुणवान मकाली, सो पुन धर्म न रोचे कदा, जिय जुरवान मधुररस सदा । कारण तने प्रभाव प्रथम संज्ञानही। कर्मोदय अस्तित्व हुसशा शेष ही। संजुलण णोकसायागुदयादो संजमो हवे जम्हा। है उपचारहि मात्र कार्य रूपी नहीं। मलजगण पमादो विय नम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३॥ गाथा जु षट्नम बन्द महि अधिकार उत्तम यह सही। जो देशघाती संज्वलन नव-नोकाय र सही। संज्ञा सुनामा पचमो परण कियो सुखदाय हो । संयम मकल अरु मल कनक परमाद दोट हेतु ही। लाख छन्द अर्थ ममा घटबंद सुधी लेहु सुधारके। ताते जिया साई प्रमत सोई विरत उर बानिये। वांबहु पदाबहु पढ़हु जिहि विधि होहु तट तिन धारके। वरती जु षष्ठम यानि तातें प्रमत संयत मानिये ॥३२॥ संधि पुष्पिका वाक्य उपर मुजब है। इस तरा गोम्मटसारका यह पद्यानुवाद एक अप्रकाशित रचना मीलेसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस श्रासयो जीवो। जिसका समाजमें कोई उस्लेख पाजनक सामने नहीं कम्म-रय-विप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि।। ६५॥ पाया। इस तरहकी भनेकों अज्ञात रचनाएँ प्रन्यभपडारों में छिपी पड़ी है जिन्हें प्रकाशमें खानेका बत्ल करना चाहिए। सब मेद शीलतने जु अठ दश सहस तिनको पायजी। आशा है कोई दानी महानुभाव दौलतरामवीकी इस माधव समस्त निरोधजिय पुन स्वपदमें थिर थाय जी॥ कृतिको प्रकाशमें लानेका यत्न करंगे इस ग्रन्थकी एक नव वध्यमान करममईरज कर विमुक्त भये सही। प्रति बिजनौरके शास्.मयडारमें भी मौजूद है। मन वचन तनके योग विन जिनमजोगि संज्ञा नही ।। दोनों प्रतिया मथरामें सं०१६41 में प्रतिविपि की गोवध बन्द करने के लिये ३१ करोड हिन्दुओंकी मांग ! क्रांतिकारी विचारों के साथ ! "गोरक्षण" मासिक पत्र में पदिए गो सेवामें भाग लेने के लिये आन ही २) रु०वाषिक गोदान भेजकर प्राहक बनिए। नमूने के लिये का टिकट मेजिये। नमूना मुफ्त नहीं भेजा जाता। धार्मिक संस्थाओं और छात्रों को भद्ध मल्य में। ग्राहक बनाने वालों को भरपूर कमीशन दिया जाता है। गोबध बन्दी कराने त प्रकारकी सहायता तथा दान नीचे के पत्ते पर मनिआर्डर से भेजिए। मैनेजर-'गोरक्षण रामनगर-बनारस।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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