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गोम्मटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवाद
[परमानन्द जैन प्राचार्य नेमिचन्द्र सिदाम्तचक्रवर्तीके गोम्मटसार पर कविने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिखा है कि अनेक टीका टिप्पण लिखे गये हैं x पाठकोंको जान कर ग्रन्थमें कहीं छन्द और अर्थ में भूल रह गई हो तो विद्वानों प्रसता होगी कि भा. दि. जैन महासभाके शास्त्रभंडारों को चाहिये कि मूलगाथाको देख कर उसका शोधन करने, मेस मुझे गोम्मटसार जीवकायका पद्यानुवाद उपलब्ध मैंने तो गाथाके अर्थको सुगम रीति अवधारण करनेके हमारे, जो पं. टोडरमलकी हिन्दी टीकाके बाद बनाया लिये मात्र प्रयत्न किया है।गया है। इस पद्यानुवादके कर्ता वर्णी दौलतराम हैं, यह जो है छन्द अर्थ महि भूल, सोधह सुधी देखि श्रुतमूल किस वंशके विद्वान थे और इनकी गुरुपरम्परा और समय गाथा
र समय गाथारथ अवधारण काज, सुगमरीति कीनी हित साज।२। क्या है इसका प्रन्यप्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं किया है।
कविने नेमिचन्द्रकी जीवतत्वप्रदीपिका नामक सिर्फ इतना ही बतलाया है कि मूलगाथाके अर्थको अव
संस्कृतटीका और पं. टोडरमलजीके 'सम्यज्ञानचन्द्रिका' धारण करने के लिये, और अपने शिष्यको पढ़ाने के लिये
नामक भाषाटीका इन दोनों टीकाओं से अर्थका अवलोकन जिसका नाम व्यक्त नहीं किया वर्णी दौलतरामने यह
कर संदृष्टि और यन्त्रोंको छोय कर मूल गाथाओंका अर्थ पद्यानुवाद किया है जैसा कि प्रन्धके अन्तिम मचया पद्यसे
कहा गया है। और यन्त्र वाली गाथाश्रोके अर्थको गुरु
टीका (पं० टोडरमनजीकी टीका ) देखनेका संकेत गाथा मूलमांहि अर्थ न विशेष समझांहि,
किया गया है यथाताते अर्थ अवधारनेका लोभी थायकें। अथवा स्वशिप्य ताके पढ़ावन काज,
तिनही संस्कृत भाषा दोय, वृत्तिनमेंसे अर्थ विलोय ।
संदृष्टि अरु यन्त्र विचार, गाथा मूल अर्थ कहूं सार।।८७ यह कर दियो प्रारम्भ गुरुपदेश पायकें। क्रीडनके तालसम मैं वर्णी दौलतबाल जान ।
यन्त्र तनी गाथानको, अर्थ सुरचनायुक्त । श्रत-सागरमें पर्यो उमगायके । देम्वा गुरूटीका विर्षे, करहु भ्रांत निजमुक्त ॥ ८ ॥ सो अब लघु बुद्धिपाय शारद सहाय थारी,
अब पाठकोंकी जानकारीके लिये कुछ मूल गाथाओका आय गयो आधे पार विलम्ब विहायक।
पद्यानुवाद मूलगाथाओंके नीचे दिया जाता है पाठक उस xप्राचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार पर अनेक टीकाएं परसे कविके रचना और भाषा बादिके सम्बन्धमें जानकारी लिखी गई है। उन उपलब्ध टीकाओंमें गम्मटसारकी' प्राप्त कर सकेंगे।
काहीका जिसके कर्ता प्राचार्य चन्द्रकीतिके शिष्य मिदं मदं पगामिय जिगाटतागोगिन मुनिििरकीर्ति हैं। उन्होंने यह टीका शक सं. १०१६
गुणरयणभूपणुदयं जीवस परुवणं वोच्छं ।। ( वि. सं. १७ में बनाकर समाप्त की है। इस
की है। इस दहा-गुण-मणि-भूषण उदय वर नेमिचन्द जिनराय ।
ना , टीकाकी एक प्रति मोजमाबाद जयपुरके शास्त्र भण्डारमें
सिद्ध शुखमकनकनम, कहुँ जिय प्ररुपण गाय ॥ १५६.की लिखी हुई मौजूद है जिसे भ. ज्ञानभूषणके
गुण-रतन-भूषण उदययुत श्रीसिद्ध शुद्ध जिनेन्द्रजी, शिष्य बघु विशालकीतिको गंधार मन्दिरमें हमदवंशी
। हुमनवशा बरनेमिचन्द कविन चौबीस वा तीर्थेन्द्रजी। भावक सर भाइयाकीका की पुत्री माणिकराईने लिखा कर प्रदानकी थी। दूसरी कनकी टीका केशववर्गीकी है जिसे * कविने २० टोडरमाजजीको छप्पयछन्दकी निम्न उन्होंने शक सं० १२८ामें बनाकर समाप्त की तीसरी पंक्तियों में सेठ लिखा है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि टीका अभयचन्द्र सूरीकी मन्दप्रयोधिका है। चौथी टीका पंजी अर्थसम्पन्न साहुकार थे। उनके यहाँ लेनदेनका नेमचन्द्रकी है।५ वी टीका पं० टोडरमबाजी की है। निजी कार्य भी सम्पन होता था