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अनेकान्त
[किरण संभव तो यह है कि वे जिनमदगणि माश्रमके समका- हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यय । बीन या कुछ पूर्व बी रहे है।
प्रदुर्भावे समाप्ते च इति शब्दः विदुर्बुधा ।। शालार्थव कर्ता प्राचार्य एभच्द्रको वि.सं. १३.. यह धवला टीका वि० सं०८७ में बनकर समाप्त में होनेवाले परिडत बसाधर जीके बादका विद्वान बतखाना हुई है। उक्त उल्लेखानुसार धनंजय कविका समय वि. किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता। जबकि पं० सं०७३ से पूर्व वर्ती है । अतः उनका नामोल्लेख वीरप्राशापरजी की इष्टोपदेशटीकामें ज्ञानार्यवके कई पद्य सेनाचार्यसे भी पूर्व होना चाहिए, कि विद्यानन्द के बाद । ' रूपसे पाये जाते है, ऐसी हालत उक निष्कर्ष इसी तरह अपनश दोहा साहित्यके रचयिता योगी निकालना समुचित नहीं कहा जा सकता शुभचन्द्र नामके देवको विक्रमकी १५वीं शताब्दीमें रक्खा है। जबकि अनेक विद्वान हुये हैं। प्रस्तुत शुभचन्द्र यदि १३ वीं परमात्मप्रकाश ग्रंथके टीकाकार ब्रह्मदेव विक्रमको १३ वीं शताब्दीके विद्वान होते तो वे जिनसेन तकके प्रधान भाषा शताब्दीके विद्वान है। और डाक्टर ए. एन. उपाध्ये एम. योका स्मरण करके ही न रह जाते बलिक जिनसेनके बाद ए.डो. जिट्ने भनेक प्रमाणोंके चाधारसे योगीद्रदेवका होनेवाले कुछ महान भाचार्योंका भी स्मरण करते; परन्तु समय परमात्मप्रकाशको प्रस्तावनामें ईसाकी.वीं शताब्दी स्मरण नहीं किया, इससे वे १३ वीं शताब्दीके उत्तरार्धके निश्चित किया है। अतः बिना किसी प्रमाणके उन विक्रम विद्वान नहीं जान पड़ते । ज्ञानार्यवके कर्ता अधिकसे अधिक की १३ वीं शताब्दीमें रखना उचित नहीं है। क्योंकि १.वीं"वीं शताब्दीके विद्वान ज्ञात होते हैं। ज्ञामाव पाचार्य हेमचन्दने योगीन्द्रदेवको परमात्मप्रकाशकी रचनासे के 'गुण दोष विचार' नामक प्रकरणमें जिन तीन पयोंको अनेक पच उद्धत किये है अपनश भाषाकी प्राचीन रचना 'उक्त'च' बतलाया गया है उन्हें ज्ञानार्णव कारने यशस्ति- दोहा साहित्यसे शुरू होती है। बक सम्पूसे नहीं लिया है। क्योंकि यशस्तिलकचम्पूकी
पउमचरियके कर्ता विमल कविके समयमें जरूर कुछ कई प्राचीन लिखित प्रतियोंमें उक्त तीनों ही पद्य 'उक्तच' संशोधन किया गया। ग्रन्थमें उल्लिखित विक्रम संवत रूपसे अंकित है इससे वे यशस्तिनको उदत होनेके
६० का रचनाकाल आपत्तिके योग्य है। इस पर कई कारण उपसे प्राचीन जान पाते हैं। अतः वे पच शुभच- विद्वानोंने प्रापत्ति की है। हमने भी उसका पान्तरिक परीनाने यशस्तिलक चम्पूसे लिये यह नहीं कहा जा सकता।
पण किया जिसके फलस्वरूप कविका समय विक्रमकी ५ हमने ज्ञानावकी कई प्राचीन प्रतियांका अवलोकन किया
वीं ६ ठी शताब्दी स्थिर किया गया, परन्तु प्रस्तुत तालिकाहै जिनमेंसे दो तीन प्रतियोंके हाशिये पर जो ग्रन्थ बाझ में वह बिना किसी प्रमाणके तीसरी शताब्दी रक्खा गया पच किसीमे अपनी जानकारीके लिये नोट कर दिये थे । उन्हें बाद लिपिकारोंने मूलमें शामिल कर दिया। इस अब मैं उन विद्वानोंमें से व प्रमुख विद्वानोंका तरह प्रतिलिपिकारोंकी कृपा अथवा नासमझीसं अनेको
नामोल्लेख कर देना चावश्यक समझता है जिनको प्रमुख पद्य प्रक्षिनरूपसं प्रन्या में शामिल हो गये है यह बात
पन्थकार होते हुए भी तालिकामे चोद दिया गया है। प्रन्यांका तुलनात्मक अध्ययन करने वालोंसे छिपी नहीं
उदाहरण स्वरूप 'जल्पनिर्णय' के कर्ता श्रीदत्त, 'सुमति है। ऐसी स्थितिम ज्ञानावकी शुद्ध प्राचीन प्रतियोसे
सप्तक' और सन्मतिसूत्रविवृ तके कर्ता सुमतिदेव, मुद्रित प्रतिका संशोधन होना जरूरी है।
जिनका तस्वसंग्रह नामक बौद्ध ग्रन्थके टीकाकार कमलशील'राघवपापडवीय' काव्यके कर्ता कविधनंजयका नामो- ने 'समतिदेव दिगम्बरेश इम वाक्यके द्वारा उक्लेख किया क्लेख तक तालिकामे प्राचार्य जिनमन वीरसेन, जिनसन -- शाकटायन और भाचार्य विद्यानन्दके बाद वि.सं.... सुमतिदेव ममुस्तुत येनवस्सुमति सप्तकमाप्ततयाकृतम् । में किया है वह भी ठीक नहीं है. क्योंकि उक्त विकी परिहतापथ-सव-पधार्थिनां सुमतिकोटिविवर्तिभवातहत् ॥ अनेकार्य नाम माला' का निम्न एक पथमाचार्य वीरसेनने
-शिलालेख सं० भा. १-२५ एक उपयोगो रलोक कह कर अपनी धवला टीकामे
इस ग्रंथका उल्लेख वादिराजने पारनाथ चरित्र उद्धत किया है:
में किया है। .