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________________ किरण ४] शौच-धर्म [१२६ श्यक रोके हुए हैं यदि में अपनी आवश्यकताके कपड़े लोग कहते हैं जियो और जीने दो, पर जैनधर्म बचाकर दूसरोंको दे देंगे वस्त्रका अकाल आज ही दूर कहता है कि न जिभो और न जीने दो। संसारमें न स्वयं होजाय । अरे तुम दो सौ की साड़ी पहिनकर निकलो और जन्म धारण करी और न दूसरेको करने दो । दोनोंको दूसरेके पास साधारणसा वस्त्र भी न हो तब देखकर उन्हें मोर हो जाय ऐसी इच्छा करो। डाह न हो तो क्या हो? (सागर चातुर्मासमें दिये हुए प्रवचन से) शौच-धर्म (ले० पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य) शौचका सामान्य और सीधा अर्थ पवित्रता है। अपने विशाल पाण्डित्यकाभी विचार किया था। वेश्यायह पवित्रता प्रात्मामें लोभ-कपायके अभावमें प्रकट के लोभमें फंसकर अपना सर्वनाश किया था। एक होती है। यों तो आत्माकी पवित्रताक रोधक सभी पात् साधु साधु होकर भी लोभ-पिशाचके वशीभूत कपाय और कम है, किन्तु लोभ-कपाय आत्माकी उस होकर जीवनकी तपोमय साधनाको भी खो बैठा था। पवित्रताको रोकती है जो आत्माको मुक्तितक पहुँचाती अतः आत्माको शौच-धर्मके पालन द्वारा ही ऊँचे है और मुक्ति में अनन्त काल तक विद्यमान रहती है। उठाया जा सकता है।। यही कारण है कि यथाख्यातचारित्र भी, जो प्रायः आज संमारके व्यक्तियों में सन्तोष श्रा जाय, उक्त पवित्रतारूप ही है, लोभक अभाव में ही आवि- लोभकी मात्रा कम हो जाय,न्यूनाधिकरूपमें यह शौच. भत होता है। इसलिये पवित्रताविशेपको शौचधर्म गुण समा जाय तो संसार तणाकी भट्टीमें जलनेकहना उचित ही है। बात यह है कि लोभ आत्माके से बच सकता है और सुख शांतिको प्राप्त कर अन्य तमाम गुणां पर अपना दुष्प्रभाव डाल कर उन्हें सकता है। मलिन बना दता है। सब पापा और दुगुणाका भी विचारनेकी बात है कि लोक पदार्थ तो सीमित वह जनक है। लोभसे मन, वाणी तथा काय तीनों । हैं परन्तु लोगोंकी इच्छाएँ असीमित है। यदि पदार्थोंदषित हो जाते हैं और उन तीनों का सम्बन्ध प्रात्मा का बटवारा किया जाय तो मबको उनकी इच्छानुसार के साथ हान से आत्मा भी दूपित बन जाता है। मिलना सम्भव नहीं है। इसलिये सन्तोप अथवा शौच स्पतः मन वाणी और कायको दषित न होने देनेके गुणही एक ऐस. वस्तु है जो आत्माको सुख व शांति लिये यह आवश्यक है कि लोभ कपायसे बचा जाय। प्रदान कर मकती है। इसी प्राशयसे एक विद्वानने अर्थात् शौच-धर्म का पालन किया जाय । शौच धर्म कहा हैआत्माका एक स्वाभाविक गुण है जो प्रकट होते माशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । ही आत्माके अन्य गुणों पर भी अपना चमत्कारपूर्ण कम्य किं कियदायाति वृष्य वो विषयेषिता॥ असर डालता है। मन, वाणी और शरीर तीनों उसके सद्भावमें शुद्ध हो जाते हैं। कितना ही ज्ञान अर्थात प्रत्येक प्राणाकी इच्छाओंका गड़ा इतना और कितना ही चारित्र क्यों न हो, इस गुणके अभाव है कि इसमें समप्र विश्व परमाणुके बराबर है। ऐसी में वे मलिन बने रहते है ।। स्थिति में किसको क्या और किसना मिल सकता है। पाठकोंकी उस ब्राह्मण विद्वानकी कहानीजात अतः विषयोंकी इच्छा करना व्यर्थ है। होगी, जिसने लोभमें आकर अपना पतन किया था। जीवनको स्थिर और स्वस्थ रखने के लिये जितनी न उसने अपने जाति-कुलका ख्याल रखा था और न भावश्यकता हो उतनी वस्तुओंको रखो। शेषको दसरों
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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