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________________ १२८1 अनेकान्त [किरण ४ यदि इसकी रक्षा चाहते हो तो क्रोध, लोभ, भय पण्डितजो धर्मके प्रभावका अनुभव करते हुए चले और और हास्यको छोयो । यही मूठ बोबनेके कारण है। इन उन चोरोने इनके उन साथियोंको जो आगे चले गये थे पर विजय प्राप्त करो और साथ में इस बातका भी खयाल बुरी तरह पीटा तथा सब सामान छुड़ा लिया । समता रखो कि कभी मेरे मुंहसे उत्सूत्र-आगमके विरुद्ध वचन न परिणाम कभी व्यर्थ नहीं जाते । तत्वार्थ जप, तप और निकलें। अपने वचनोंकी कीमत अपने माप बनाई जा उसके फलमें विश्वास होना भास्तिक्य कहलाता है यदि सकती है। इन कार्यों में विश्वास न हो तो फोकटमें कष्ट सहन कौन अब यह 'पंचाध्यायी' है इसमें सम्यग्दर्शनका प्रकरण करे? दान करनेसे पुण्य होता है। भागामी पर्यायमें उसका चल रहा है। वास्तव में पूछो तो सम्यग्दर्शन ही संसारकी अच्छा फल मिलता है। इसी विश्वास पर ही दान करते जद काटनेवाला है, जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया हो नहीं तो ५) दान कर देने पर १००)के ) तो अभी उसका संमार नष्ट हुधा ही समझो आज सम्यग्दर्मनके ही रह जाते हैं। दान भादिसे ही प्रभावना होती है। अनुकम्पा और भास्तिक्य गुणका वर्णन है । पर दुःख अमृतचन्द्र स्वामीने लिखा है किप्रहाणेच्छाको (दूसरोके दुःख नाश करनेकी अभिलाषाको) आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । अमुकम्पा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि अपने सामने किसीको दाननपारजनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।। दुःखी नहीं देख सकता। उसके हृदयमै सच्ची समता पा जाती है, कंचन और काँचमें उनकी समता हो जाती है, इन दिनोंमें सम्यग्दर्शनादि आपके हृदयमें उत्पन्न हुए समताका अर्थ यह नहीं कि उसे इन दोनोंका ज्ञान नहीं ही होंगे, तप कर हो रहे हो, पूजा खूब करते हो, यदि कुछ दान करने लगी तो उसमे जैनधर्मकी क्या प्रभावना नहीं रहता यदि ज्ञान न रहे तो हम लोगोंसे भी अधिक प्रज्ञानी होगी। आप चतुर्दशीके दिन उपवास करोगे यदि उस हो जाय, पर ज्ञान रहते हुए भी वह हर्ष-विषादका कारण दिनका बचा हुश्रा अन्न गरीबोंको खिला दोगे तो तुम्हारी नहीं होता । सच्ची समता जिसे प्राप्त हो गई उसे कोई क्या हानि हो जायेगी। सब तुम्हारा यश गायेंगे और कष्ट नहीं दे सकता। ५. देवीदासजीके जीवनको एक कहेंगे कि जैनियोंके व्रत लगे हुए हैं इनमें यह गरीबोंका घटना है। उनके सामायिकका नियम था ये राम्ता चल भी ध्यान रखते हैं। आप लोग चुप रह गये इससे मालूम रहे हों जंगल हो चाहे पहाड़, यदि सामायिकका समय हो होता है कि प्रापको हमारी बात इष्ट है। जाय तो वे वहीं बैठ जाते थे। एक बार वे कुछ साथियोंके साथ घोदापर सामान लादे हुए जा रहे थे भयंकर जंगल एक बार एक राजाने अपनी सभाके लोगोंसे कहा था, शामका समय हो गया, वे वहीं ठहर गये सब गठरी कि दो शब्दाम मोक्षका मार्ग बतलाश्री, नहीं तो कठोर उतारकर रख दी और घोड़ेको पास ही छोड़ दिया। दण्ड पावोगे । सब चुप रह गये किसीके मुखसे एक भी साथियोंने बहुत रोका कि यहाँ चोरोंका डर है भागे चल- शब्द नहीं निकल सका । एक वृद्ध बोला, महाराज आपके कर रुकेंगे पर यह नहीं माने । इन्होंने साफ कह दिया चोर प्रश्नका उत्तर हो चुका । राजाने कहा कोई बोला है ही सब कुछ ले जायें. पर सामायिकका वख्त नहीं टाल नहीं उत्तर कैसे हो गया ? बुढने कहा पाप प्रश्न करना सकते । ये सामायिकमें निश्चल हांगये, चोर आये और जानते हैं पर उत्तर समझना नहीं जानते । देखो, सब इनकी गडरियां ले गये। वे अपनी सामायिकमें ही मस्त शान्त हैं और शान्ति ही मोक्षका मार्ग है। यह सब लोग रहे। कुछ दूर जाने पर चोराके मनमें पाया कि हमने अपनी चेप्टासे बता रहे हैं। उसकी चोरी व्यर्थ की, वह बड़ा शांत आदमी हैं उसने इसी प्रकार आप लोग भी चुप बैठे हैं मालूम होता एक शब्द भी नहीं कहा। सब लौटे और उनकी गठरियाँ है भाप अवश्य इस बात का खयाल रक्खेंगे। यहाँ पाँच वापिस दे गये, अब तक इनका सामायिक पूरा हो चुका सौ सात सौ घर जैनियों के हैं यदि प्रतिदिन आधा आधा था, चोरों ने कहा कि आपकी शांतवृत्ति देखकर हम लोग की सेर अब हर एकके घरसे निकले तो एक हजार प्रादमियोंहिम्मत भापकी गठरियां ले जानेकी नहीं हुई । आप का पालन अनायास होजाय । पर उस ओर ध्यान नाय खुशीसे जामो कहकर उन्होंने उनका घोड़ा लाद दिया। तब न । एक-एक औरत अपने पास पचासों कपड़े आना
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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