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की भावनासे दिया गया विष भी किसी मनुष्यको अमृतका वचनकी शुद्धता भाषासमिति है, भोजनकी शुद्धता कायरता और शाबर किसी मनुन्यकी जान बचानक एषणासमिति है, देखकर उठाने और धरनेकी सुद्धता लिये बापरेशनसा है और मनुष्य मर जाता है। चाहे भादान-निक्षेपणासमिति है, स्वच्छ निर्जन्तु स्थान पर मृत्यु हो याम हो मारनेकी भावनासे विष देने पाखा मलमूत्र विसर्जन करना प्रतिष्ठापनासमिति है। हिंसक है और प्रापरेशन करनेवाला साक्टर अहिंसक।
संयमकी महत्ता पर श्रीपमनन्दिनाचार्यका निम्न मग, त्वचा, जिल्हा मासिका, नेत्र और कान इन पर कंट्रोल भरमा यही इन्द्रि-संवम है। कौन नहीं जानता कि श्लोक महत्वपूर्ण हैइन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए सुख सुखाभास है, विनाशक है मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यावयः, और कौके पाधीन है। स्पर्शन इनिपका विषय कामांच
तेष्वेवाप्तवचः श्रतिः स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने । हाथीको फंसा देता है, जिहा इन्द्रियके कारण मछली कांटे
प्राप्ते ते अपि निर्मले अपि पर स्यातां न येनामिते, में फंसकर अपने प्राण गंवा देती है। मासिका इन्द्रियके कारण कमलके परागमें उसकी सुगन्ध सूंघता संपता
स्वर्मो कफलप्रदः स च कथं नश्लाध्यने संयमः ॥ भंवरा अपनी जान देता है। नेत्र इन्द्रियके वशीभूत इसमें बतलाया है कि संसाररूपी गहन बनमें होकर पतंग दीपक या विजनीकी बौमें स्वाहा हो भ्रमण करते हुए जीवको मनुष्यजन्म महादुर्लभ है । आता है। क्योंन्द्रिय के वशीभूत चपल मृग भी राग मनुष्य पर्यायमें भी उत्तम जातिका मिलना कठिन सुननेके कारण शिकारीके द्वारा दारुण कारको भोगता है। है। यदि उत्सम जाति भी मिले तो भगवानके वचन जब एक एक इन्द्रियके विषयके कारण जीव नानाप्रकारके सुननेका सुयोग दुर्लभ है। यदि भगवद्-वचन भी इस्खोंको भोगता है तो मनुष्य पांचों इन्द्रियके विषयमें सुना तो उन वचनोंमें श्रद्धा साना और ज्ञानसे उसका फंसकर क्या क्या कष्ट सहन नहीं करता । इन्द्रियोंकी निर्णय करना कठिन है। यदि ये सब बातं हों तो भी इस अनर्गल प्रवृत्तिको रोकना ही संयम है। गृहस्थके संयमके बिना न स्वर्ग मिल सकता है और न मोच । बिए भी यथासाध्य समितियोंका पालन नित्यके व्यवहारके यह जानकर मनुष्यको यथाशक्ति संयम अवश्य धारण लिए पावश्यक है। गमनकी शुद्धता ईर्या समिति है, करना चाहिए ।
प्राचिन्य धर्म
(परमानन्द शास्त्री) ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । भावनासे ओत प्रोत है, यदि उसमें से धनको ममताका अभिसन्धिनिवृत्तियों सदाकिंचन्यमुच्यते । सर्वथा प्रभाव हो जाता है तब उसे भी पाकिचन्य
धर्मका धारी माना जा सकता है अन्यथा नहीं। पाकिसंसारमें ऐहिक पदार्थों में और अपने शरीरादिकमें भी
चम्य धर्मका धारी धनी, निर्धनी, दुखी, सुखी मादि ममताका अभाव होना भाकिंचय है। अचिन्यका
सभी व्यक्तियों पर समानभाव रहता है । वह बोकमें मर्थ होता हैनग्नता। केवल पाम मग्नता भाकिंचम्य
किसोको भी दुखी नहीं देखना चाहता नहीं है, किन्तु अंतर्वास परिग्रहसे ममत्वका प्रभाव होना माकिंचाय;बोकमें जिसके पास कुछ भी नहीं है, भाजखोको परिप्रहकी भासधि, पर्थसंचयकी खोलुजिसका वन मंगा है और मन भी मंगा है, जिसे पता और विविधि भोगोंके मोगनेकी पावसाने मानवअपये शरीरका मी लेशमात्र मोहनहीं है, वही वास्तवमें जीवमके नैतिक स्वरको भी नीचे गिरा दिया है। परिग्रहप्राचिन है। केवल निधन होना अकिंचन नहीं कहा की अनन्ततृया मानवताके रहस्यको खोखला कर रही जा सकता, क्योंकि पनामाव, धनागमकी बाकांचाप है। लोग परिग्रहको ही भाज सब कुछ अपना माने ?