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________________ किरण ४] [४१ है। उसीकी भीड़ में अपनेको सुखी बबुभव करते है। साखता है, वही सन्चा मानव परिवह-संचय उसके संचयसे ही अपनी मान प्रतिष्ठाको ऊँचा उठा दुधा बालसा नहीं रखता, और न पाहा प्रतिसे से समझ रहे हैं। जो जितना अधिक परिग्रही है वह लोकमें बढ़ाना ही चाहता है जिसे मोगोंकी अनुवविध चिन्ता उतना ही अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है और पैसेके नहीं होती, और इसी दिन बाहही होती है। कारण लोग उसकी इज्जत करते हैं। मानो धनागम उसकी जिसकी परमें भात्मकल्पवाका अमावबहसदा संतोषी मानप्रतिहाका माज केन्द्रसा बना दुपा है। और अपने बालुस्वभावसे माांकारी सहाणसे कनी जो निधन है, गरीब है, बेचारा खानेके लिये नहीं टकराता जो मानव जीवनके पतबमें कारण है। मुहताज रहता है, तन ढकनेको भी जिसके पास जिनकी धनादि बैभवमें ममता वहीं उसे अपना नहीं वस्त्र नहीं है, भरपेट मनका भी प्रबन्ध नहीं है, मानता, किन्तु कोदवका फल समझकर उसमें और मांगकर उदरपूर्ति करना जिसे संतापका कारण है. विषाद नहीं करता, साता परिवतिमें एली और असावा जो मांगकर खानेसे भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझ दुःखी अथवा दिवगीर नहीं होता कि विवेकी और रहा है, ऐसे व्यक्तिका बोकमें कोई भादर नहीं है। जिसे माध्यस्थ भावनामें तत्पर रहता है।हाकिचन धर्मा संसारका वैभव दुःखद प्रतीत होता है, जो पास फूसकी एक एक देश अधिकारी है। छोटीसी झोपड़ी में सुखपूर्वक रह रहा है, पर दरिद्रता जो साधु है पास्म-साधनाके दुर्गममार्म में विचरण उसके लिये अभिशाप बन रही है जो अपने पूर्ववत कर रहा, जिसने साधुवत्ति अंगीकार करवेसे पहले ही कोका फल भोगता हुमा भी कभी दिलगीर नहीं होता, संसारके वैभवसे होने वाली विषमताका मनम किया। मानवताका उभार जिसके रोम रोममें भिद रहा है, जो और अपने विवेक बलसे उसमें होने वाली प्रावरिकममता अपमेसे भी असहाय एवं दुःखी प्राणियोंके दुःख में सहानु- पवना मोहका सर्वथा त्याग किया है। जिसने मोगोंगे भूति रखता है, उन्हें सान्त्वना और बल प्रदान करता है- निस्सार समझ कर बोला है और अपये खरूपमें निक भले ही वह निधन हो, बड़े बड़े महलों में न रहकर फूसकी होनेका प्रयत्न किया है। जो पार भीतर एक सा नम्न, मोपड़ी में रहता हो, तो भी खोकमें बड़ा होनेके योग्य है। जिसके पास संयम और ज्ञानार्जनके उपकरणके सिवाय क्योंकि उसकी पारमा निर्मल है. विचारोंमें उच्चता है कोई अन्य परमाणुमात्र भी पदार्थ नहीं है, जो परमाणुवह कर्तव्य पथ पर प्रारूक है, इसीसे वास्तवमं वह मात्रको भी अपना नहीं मानता बह वास्तवमें साधु मानव है। और प्राचिन्य धर्मका सर्वथा अधिकारी है। इस प्राचिन्य धर्मके दो अधिकारी होते हैं, एक क्योंकि पर पदार्थकी माकांक्षा हीरान है, परिग्रह परिग्रहकी भीदमें रहने वाला विवेकी गृहस्थ, और दूसरा है। जहाँ पदार्यका संग्रह नहीं है और न बाबोंबोपोंकी भारमसाधना करने वाला तपस्त्री साधु । सम्पदा ही है किन्तु एक ममता, उनमें अपनेपनकी जो गृहस्य सांसारिक कार्यों में लग रहा है, न्याय और भावना है, वहाँ भाकिचम्बधा प्रभाव इससे नीतिसे धनार्जन करता हुमा मानवताके नैतिक स्तरसे स्पष्ट हो जाता कि पर पदार्थ आहे हे मान रहे उसमें नहीं गिरा है, जो सदा इस बातका ध्यान रखता है कि मैं ममता अथवा का अभाव हुए बिना प्राचिन्यका मानव हूँ और दूसरे भी लोकमें मानव भी मेरे ही सजाव नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें विल्पाहाबो समान हैं, मुझे उनके प्रति घृणा अथवा तिरस्कारकी रष्टि नहीं है। अतएव जो साधु रत्नापका साधनादेश रखना भयुक्त है। हो, यदि उनमें कुछ कमी है अथवा भोगांसे सर्वथा निस्पृह है, संबम और हायक उपकरण पुरुषार्थकी कमजोरी है, तो वे उसे दूर करनेका यत्व करें। पीछी, कमण्डलु, शास्त्रादिमें भी ममता नहीं जो भान परन्तु धनादिकके मदमें अपनेकोन मुलावें, विवेकसे काम स्वातन्त्र्यका अमितापीकर्मबन्धनमालेमें डालक में विवेक ही मानव जीवनको ऊँचा उठाने वाला है, है, वास्तव में बहीबाकिंचम्मचर्मका स्वामी। साहस और धैर्य उसके सहायक है । वह सदष्टि है- उत्तम पाकिंचन गुण जानो, परिमहर्षिता दुखी मानो वस्तुतत्वमें अडोल भद्धा रखता है, हृदयमें कोमलता और फाँस तनिकसी तनमें साले,वाह मंगोटीकी दुख भाल ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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