SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ४] संगम धर्म को इसी संगसे खिन्बने में समरबह बात निमित्वन्त भावपक, बा विकराल सारव किये बाद कही जा सकती है। हुए। इन सब समस्याबोंको पुरका जैन सति पूर्णरूपसे सचमत्वासा-से महान अन्योंका योग उपसंहार सौभाग्यसे हमें मिला हुमा है और इन अन्योंका पठनबड़े बड़े विद्वानोंके सामने विश्व स्वयं एक पहेली बन कर पाठन भी हम बोग सतत किया करते है, परन्तु हमारी खड़ा हुआ है। संसारकी दुःखपूर्ण अजीब मजीव घटना- शामवृद्धि और हमारा जीवनविकास नहीं हो रहा है यह ओंसे उद्विग्न प्रास्मोन्निीषु लोगोंके सामने प्रात्मकल्याणकी बात हमारे खिबे गम्भीरतापूर्वक सोचनेकी पदि हमारे भी एक समस्या है। इसके अतिरिक मानवमात्र- विद्वानोंका ध्यान इस मोर जाये तो इन सब समस्यामा की जीवन-समस्या तो, जिसका हल होना पहले और हल हो जाना असम्भव बात नहीं है संयम धर्म (श्री राजकृष्ण जन) दश धर्मों में संयमका बठा स्थान है। इसलिए जप करता है। गृहस्थ के लिये देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय मनुष्य उत्तमममा, मादव, मार्जव, शौच और सत्य गुणों संयम, तप और दान ये कापावश्यक बतलाये है, इनमें सं विभूषित होता है, तब वह ठीक अर्थ में संयम ग्रहण संयमको इपलिए गर्भित किया गया है कि संयम मर्याद करनेका पात्र होता है। सं-सम्यक् प्रकारसे यम (जीवन इन्द्रियनिग्रहके बिना उसका जीवन व्यवस्थित या Conपर्यंत चारित्र) ग्रहण करनेको संयम कहते है। इससे कोरे trolled life नहीं होती । यहाँसे वह अपने सम्ब द्रव्य-चारित्रका निराकरण हो जाता है। अदा और ज्ञानको प्रावरणाके रूपमें उपयोग करता पूज्यपादाचायने 'समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणेन्द्रिय भोर पहीसे वह दशा प्रारम्भ होती है जो संसारकी परिहारः' यह संयमका लक्षण बतलाया है। यही बात निवृत्ति अर्थात् मोचके लिए मावश्यक है। पग्रनन्दि प्राचार्यके निम्न श्लोकसे विदित है: तत्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तयोगात्माणम्यरोपणं' यह हिंसाका जन्तु-कृपार्दित-मनसः समितषु साधोः पवर्तमानस्य । आपण बतलाया है । जब मनुष्य पांच इन्द्रिय, चार कपाय चार विकथा, राग-द्वेष और निद्रा, ५ प्रकारके प्रमाद इन प्राणेन्द्रिपरिहारः संयममाहु महामुनयः ॥ पर नियंत्रण करके प्रवृत्ति करता है, तब वह हिसाका त्यागी इसमें पूर्ण हिसाका त्याग है, क्योंकि पूर्ण दयालुता होता है। प्रमादकी उपस्थितिमें सर्वप्रथम भावहिंसाके वीतराग दशाम ७३ अप्रमत्त गुणस्थानमें ही होती है। द्वारा अपने भास्मपरिणामोंका घात करता है और अपने किन्तु जब सम्पूर्ण वीतरागता न हो तब रागकी वृत्तिके समत्व (Equilibrium) को खो बैठता है। इसमें लिए पांच व्रतोंका धारण करना, पांच समितियोंका यह भावश्यक नहीं कि अन्य प्राणी म या जीवे, पाजन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन वह हिंसक कहलायेगा । पुरुषार्थसिद्बुपावके निम्न दो वचन-कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच रखोक इस विषयमें बड़े महत्व के है:इन्द्रियोंके विषयोंको जीतना संयम है। यह दो प्रकारका भ्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृक्षायां । है प्राणसंयम और इन्द्रिय संयम । साधु (मुनि) दानों प्रकारके संयमको पूर्ण पाखता है, वह अपने नियतां जोवो मारवा धावत्यमे ध्र हिंसा। भाबमें प्रयत्न करता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानं । बायु और बनस्पतिकाय जैसे स्थावर जीवोंकी भी पश्चात्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणांतु॥ हो । गृहस्थ, प्राण संयममें, स जीवोंके विधातको हिंसक और अहिंसकको व्याख्या निम्म उदाहरबसे स्वागतान और स्थावर जीवोंकी भी यथासाध्य र स्पा हो जाती है। कभी कभी देखा जाता है कि मारने साका स्याग ६, होती है। द्वारा अपन
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy