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________________ १३८] भनेकान्त [किरण ४ वस्तुके अस्तित्वकी ओर दृष्टि डालते हैं तो उसका वह करणानुयोग और भौतिकवादको व्यानुयोग नामोंसे अस्तित्व किसी न किमी प्राकृतिके रूपमें ही हमें देखनेको पुकाग गया है। मिलता है। जैन संस्कृतिमें वस्तुकी यह प्राकृति ही द्रष्य- इस प्रकार समूचा तत्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे पद-वाच्य है इस तरहसे विश्व में जितनी अलग अलग लिखा जानेके कारण आध्यात्मिक या करणानुयोगका न्य प्राकृतियां हैं उतने ही द्रव्य समझना चाहिये, जैन होते हुए भी उसके भिन्न भिन्न अध्याय या प्रकरण संस्कृतिके अनुसार विश्व अनन्तानन्त श्राकृतियां विद्यमान मौतिक अर्थात् द्रव्यानुयोग और चारित्रिक अर्थात् चरणाहैं अत द्रव्य भी अनन्तानन्त ही सिद्ध हो जाते है परन्तु नुयोगकी छाप अपने ऊपर लगाये हुए हैं, जैसे पांचवे इन सभी द्रव्योंको अपनी अपनी प्रकृतियों अर्थात् गुणों अध्याय पर द्रव्यानुयोगकी और सातवें तया नवम और परिणमनों अर्थान् पर्यायोंकी समानता और अध्यायों पर चरणानुयोग की छाप लगी हुई है। विषमताके आधार पर छह वर्गों में सकलित कर दिया तत्त्वार्थसूत्रके प्रतिपाद्य विषय गया है अर्थात् 'चेतनागुणविशिष्ट अनन्तानन्त आकृतियों को जीवमामक वर्गमें, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण "तत्वार्थ सूत्र में जिन महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश विशिष्ट अणु और स्कम्धके भेदरूप अनन्तानन्त प्राक- डाला गया है वे निम्बलिखित हो सकते हैंतियोंको पुद्गल-नामक वर्गमें, वर्तना लक्षण विशिष्ट , 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा असंख्यात पाकृतियों को काल-नामक वर्गमें, जीवों और इनकी मोक्ष मार्गना, तत्वोंका स्वरूप, वे जोधादि सात पुदलोंकी क्रियामें सहायक होने वाली एक प्राकृतिको धर्म ही क्यो ? प्रमाण और नय तथा इनके भेद, नाम, नामक वर्गमे, उन्हीं जीवों और पुद्गलाके ठहरने में सहायक स्थापना, द्रव्य और भाव तथा द्रव्य, क्षेत्र, काम और होगे वाली एक प्राकृति को अधर्म-नामक वर्ग में तथा भाव, जीवकी स्वाधीन और पराधीन अवस्थायें, विश्वके समस्त द्रव्योंके अवगाहनमें सहायक होने वाली एक समस्त पदार्थोंका छह हम्योंमें समावेश, द्वन्योंकी संख्या प्राकृति को प्राकाश-मामक वर्गमें संकलित किया गया है। इह ही क्यों. प्रत्येक व्यका वैज्ञानिक स्वरूप, धर्म यही सबब है कि द्रव्योंकी संख्या जैन संस्कृतिमें छह और अधर्म द्रव्योंकी मान्यता, धर्म और अधर्म ये दोनों ही निर्धारिन करदी गई है। द्रव्य एक एक क्यों ? तथा लोकाशके बराबर इनका इसी प्रकार पात्मकल्याणके लिये हमें उम्हीं बातों विस्तार क्यों प्रकाश द्रव्यका एकत्व और व्यापकत्व, की ओर ध्यान देनेको मावश्यकता है जो कि इसमें काल दम्य की अणुरूपता और नानारूपत्ता, जीवकी प्रयोजनभूत हो सकती हैं। जैन संस्कृति में इसी प्रयोजन- पराधीन और स्वाधीन अवस्थाओंके कारण, कर्म और भून वातको ही तत्व नामसे पुकारा गया है, ये तत्व भी मोकर्म, मोर मादि। पूर्वोक प्रकारसे सात ही होते हैं।। इन सब विषयों पर यदि इस लेखमें प्रकाश डाला इस कथनले एक निष्कर्ष यह भी निकल पाता है जाय तो यह लेख एक महान ग्रन्थका आकार धारण कर कि जो लोग मारमतत्वके विवेचन को अध्यात्मवाद और लेगा और तब वह अन्य तत्वार्थसूत्रके महत्त्वका प्रतिपादक प्रास्मासे भिन दूसरे अन्य तत्वोंके विवेचन को भौतिक न होकर जैन संस्कृतिके ही महत्त्वका प्रतिपादकहो जायगा, वाद मान लेते हैं उनकी यह मान्यता गलत है क्योंकि इसलिए तत्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट उक विषयों तथा साधारण उक्त प्रकारसे, जहां पर प्रात्माके केवल अरितस्व, स्वरूप दूसरे विषयों पर इस लेख में प्रकास नहीं डालते हुए इतना या भेद प्रभेदोंका ही विवेचन किया जाता है वहां पर उसे ही कहना प्रर्याप्त है कि इस सूत्र प्रथमें सम्पूर्ण जैन भी मौतिकवादमें ही गर्भित करना चाहिये और जहां पर संस्कृतिको सूत्रोके रूपमे बहुत ही म्यवस्थित बंगसे गूध अनात्मतत्वोंका भी विवेचन प्रात्मकल्याणकी दृधिसे दिया गया है। सूत्र अन्य लिखनेका काम बड़ा ही कठिन किया जाता है वहां पर उसे भी अध्यात्मवादकी काटिमें क्योंकि उसमें एक तो संक्षेपसे सभी विषयोंका व्यवस्थित ही समझना चाहिये । यह बात तो हम पहिले गसे समावेश हो जाना चाहिए, बमरे उसमें पुनरुक्तिका ही लिख पाये है कि जैन संस्कृतिमें अध्यात्मवाद को छोटेसे छोटा दोष नहीं होना चाहिये । अन्धकार तत्वार्यसूत्र
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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