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किरण ३]
तत्वाथसूत्रका महत्व
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भागोंका अलग अलग प्रतिपादन करनेवाले तीन अनुयोगा- और काल इ. इयों के रूपमें हमारी जानकारीमें में जैन भागमको भी विभक्त कर दिया गया है।
थायगा और जब हम आध्यात्मिक दृपिटसे अर्थात् प्रात्मतस्वार्थ सूत्र मुख्यतः प्राध्यामिक विषयका प्रतिपादन कल्याण की भावनास वस्तुतत्वकी जानकारी प्रान करना करने वाला प्रन्थ है, कारण कि इसमें जो कुछ लिखा गया चाहेंगे तो उस समय वस्तु तस्व जीव, अजीव, पाश्रय, है वह सब प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे ही लिखा गया है वन्ध, स्वर. निर्जरा और मांस इन सात तत्वोंके रूपमें अथवा वही लिखा गया है जो प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे हमारी जानकारी प्रायगा। अर्थात जब हम "विश्व क्या प्रयोजन भन है. फिर भी यदि विभाजित करना चाह तो है? इस प्रश्नका समाधान करना चाहेगे तो उस समय कहा जा सकता है कि इस प्रयके पहिले, दूसरे, तीसरे, हम इस निष्कर्ष पर पहचगे कि जीव पुदगल, धर्म, अधर्म चौथे, छठे, माठवें और दशवें अध्यायाम मुख्यतः थाध्या श्राकाश और काल इन छ. द्रव्यांका समुदाय ही विश्व है सिक दृष्टि ही अपनायी गयी है इसी तरह पांच अध्याय और जब म अपने कल्याण अर्थात् मुक्तिकी भार अग्रसर में मौतिक दृष्टिका उपयोग किया गया है और सातवें होना चाहेगे तो उस समय हमारे सामने ये सात प्रश्न खड़े तथा नवम अध्यायों में विशेषकर प्राचार या कर्तव्य सम्बन्धी हो जावेंगे-(१) मैं कान है?, (२) क्या मैं बद्ध हैं, उपदेश दिया गया है।
(३) यदि छ हूँ ताकिममे बद्ध है ?.(४)किन कारणोंसे तन्वार्थमन्त्र श्राध्यात्मिक दृष्टिले ही लिखा गया है या में उससे बन्द हो रहा हूँ ?, (५) बम्धके के कारण कैसे
याय दूर किये जा सकते है ? (क) वर्तमान बन्धाको कैसे दूर यह निष्कर्ष इस प्रन्धकी लग्बनपदतिसं जाना जा सकता किया जा सकता है। और (७) मुक्ति क्या है? और तब है। इस ग्रन्थका 'सभ्यरदशनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:इन प्रश्नाके समाधानक रूपमें जीव. जिससे जीवधा
मन मा हुश्रा है ऐसा कर्म नोकरूप पुद्गल, जीवका उक्त दोनों सम्यक्चरित्रको मोक्षका मार्ग बतलाया गया है । तदनन्तर प्रकारके पुद्गलके साथ संयोगरूपबन्ध, इस बन्धके 'तत्वार्थ- श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इम सूत्रद्वारा तयाथोंके कारणीभून मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, पाय और योग श्रद्धानको सम्यकदर्शनका स्वरूप बतलाते हुए 'जीवाजीवा- रूप प्राश्रव इन मिथ्यान्व भादिकी समाप्तिरूप संवर श्रवबन्धसंवरनिर्जरामाक्षास्तत्वम्'इस मूत्रद्वारा जीव,अजीव,
तपश्चरणादिके द्वारा वर्तमान बन्धनको ढीला करनेरूप श्राश्रव, यन्त्र, संघर, निर्जरा और मोक्ष स्पमं उन तत्वायों
निर्जरा और उक्त कर्म नोकर्मरूप पुद्गलके साथ सर्वथा की सात संख्या निर्धारित करदी गयी है और फिर विनाय
सम्बन्ध विच्छेन करने म्प मुकि ये मानताव हमारे
निष्कर्ष में ग्रावेंगे। तृतीय चतुर्थ-अध्यामि जीवनावका, पच्चम अध्यायम अजीवनस्वका इंटे और मातव अध्यायांने श्राश्रय तम्ब का. भौतिक दृरिम वस्नुतन्य व्यापमें ग्रहीत होता है पाठवें अध्यायमे बन्धतत्वका नवम अध्याय में संवर और और श्राध्यामिक गिं वह तन्वरूप में ग्रहीत हाता है। निर्जरा इन दोनो तस्वीका और दश अध्याय में मानव- इसका कारण यह है कि भौनिक दृष्टि वस्तुके अस्तित्व, का इस तरह क्रमशः विवेचन करक ग्रन्थका समाप्त कर स्वरूप और भेदाभेदक कथन सम्बन्ध रम्बती है और दिया गया है।
माध्यात्मिक दृष्टि श्रान्माके पतन और उसके कारणोंका
प्रतिपादन करते हुए उसके स्थान और उत्थानके कारणोंजैन आगममें वस्तुविवेचन के प्रकार
का ही मनिपालन करती। तात्पर्य यह है कि जब हम जैन भागममें वस्तुनवका विवेचन हमें दो प्रकारले देवनेको मिलता है-कह। तो द्रव्योंके रूप में और कहीं
1.अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुदगलादण्याणि, जीवारच, तत्वांके रूप में। वस्तु-तस्व विवेचनके इन दो प्रकारका
काजश्च । (तस्वार्थ सूत्र अध्याय १ सूत्र नंबर प्राशय यह है कि जब हम भौतिक दृष्टिम अर्थात् सिर्फ वस्तु
क्रमशः 1, २ ३३।। स्थितिके रूप में वस्तुतस्वकी जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे २. जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिरामोक्षातत्वम् । तो उस समय वस्तुतत्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
(तस्वार्थ मूत्रअध्याय 1, स्त्र)