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किरण]
हमारी तीर्थ यात्रा के संस्मरण
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शास्त्रभण्डार है जिसे देखनेका मुझे उस समय कोई अव- ऊपर भी प्रकाशके प्रवाहकी (Feood eight) व्यवस्था सर नहीं मिला, मेलेके कारण देखना बड़ा कठिन था। हासन पुय्य स्वामी नामक श्रेण्ठि और उनके पुत्रोंकी मन्दिरों में दर्शन ही उस समय बड़ी कठिनतासे होता था। सहायतासे कई वर्षोंसे हुई है। जो रात्रिमें भी बराबर इस तरहसे यह नगर किसी समय अधिक सम्पन्न रहा है। मूर्तिका भव्यदर्शन करती रहती है। मैंने ता. २ मार्चके
श्रवण बेल्गोलके घासपास अनेक ग्राम हैं, उनमें जैन- प्रातःकाल गोम्टेश्वरकी उस दिव्यमूर्तिका साक्षात् दर्शन मन्दिर तथा अनेक शिलालेख पाये जाते हैं, जिन्हे लेख किया। मूर्तिकी वीतराग मुद्राका दर्शनकर चित्त में जो वृद्धिके भयसे छोड़ा जाता है। उनके देखनेसे यह स्पष्ट पाल्हाद, प्रानन्द तथा शान्ति प्राप्त हुई उसे वाणीक पता चलता है कि किसी समय श्रवणबेल्गालके आस-पास द्वारा प्रकाशमें लाना सम्भव नहीं है। बहुत दिनोंसे इस के प्र.म भी सम्पन और जैनियोंके आवाससे व्याप्त मूर्तिके दर्शन करनेकी प्रबल इच्छा बनी हुई थी, वह पूर्ण रहे हैं। परन्तु अब उन ग्रामोंमें जैनियोकी संख्या बहुत हुई, अतएव मैंने अपने मानव जीवनको सफल समझा। ही बिरल पाई जाती है जो नहींके बराबर है। जैनियोंकी वास्तवमें वह मूर्ति कितनी आकर्षक, सौम्य और वीतराइस हीनावस्थाके कारणोंके साथ वहाँ व्यापारिक व्यवस्था- गताकी निदर्शक है इसे वही जानता है जिसने उसका का न होना है। दक्षिण प्रान्तमें जैनियोके अभ्युदय और साक्षात् दर्शन कर अपनेको सफल बनाया है। मैंने स्वयं अवनतिका वह चित्र पर इस यात्रामें मेरे हृदयपर अंकित मूतिके सौन्दर्यका १५-२० मिनटतक चित्तकी एकाग्र दृष्टिसे हो गया है। अतः जब हम जैनधर्मके अभ्युदयक साथ निरीक्षण किया, तब जो स्तोत्र पाठ पढ़ रहा था वह स्वयं अपनी अवनति पर विचार करते है तब चित्तमे बड़ा ही ही रुक गया और ऐसा प्रतीत हुा कि जिमतरह किसी खेद और दुःख होता है।
दरिद्र व्यक्तिको अपूर्व निधिका दर्शन मिल जानेसे चित्तम विन्ध्यगिरि-स पर्वतका नाम 'दोडबेट्ट' अर्थात प्रसन्नता एवं मानन्दका अनुभव होता है उसी तरह मुझे बड़ा पर्वत है। समुद्रतलसे इसकी ऊंचाई ३३४७ फुट है
जो मानन्द मिला वह वाणीका विषय नहीं है। मूर्तिके और जमीनसे ४७० फुट ऊँचा है तथा उसका विस्तार पास जाकर दशक तक अपार सान्दय श्री चोथाई मीलके लगभग जान पड़ता है पर्वतको मधुरिमाका पान करते करते उसकी चित्तवृत्ति थककर भले गिरिरहसिया
ही परिवर्तित हो जाय परन्तु दर्शकी चिर पिपासित नीचेसे पहाड़के शिखरतक ऊपर जानेके लिये १०.सीदियाँ शाखें उस रूप-राशिका पान करती हुई भी तृप्त नहीं बनी हुई हैं। ये सीदियों पहारमें होकीर्यको है। होती । यही कारण है कि इन्द्र भी प्रभुको सहम्म्रो नेत्राये प्रवेशद्वारसे पहाड सन्दर जान पड़ता। अन्य पर्वतांक दम्वता हुचा भी तृप्त नहीं होता और सबसे अनठी बान समान वह बोहर अथवा भयंकर दिखाई नहीं देता।
तो यह है कि भगणित नर-नारी अपने रसज्ञ नेवासे उस
ता यह पाषाण चिकना और कुछ ढालूपनको लिये हुए है एक
मूतिके मौन्दर्य-सिन्धुका पान करते हैं परन्तु उसमें कोई दो पापाय तो इतने चिकने थे कि बालक उनपर बैठकर कमी नहीं पाती, वह पुन: देखने पर नवीन और पाश्चर्यउपरसे नीचे सरकते थे। पहायके ऊपर चारों तरफ कोट कारक प्रतीत होती है। जैसाकि माघकविके निम्नवाक्य उसमें एक बड़ा दरवाजा है जिसमें से उक्त मूर्तिके पास जाया पदस स्पष्ट ६.
माया पदसे स्पष्ट है-'पणे सणे यावतामुपैति तदेवरूप जाता है। मूतिके पीछे और बगल में कोठरियों बनी हुई रमय हैं जिनमें चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ विराजमान हैं। राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार, गरीब, अमीर, स्त्री. उस हातेके मध्यमें गोम्मटेश्वरकी १७ फीट ऊँची लोक पुरुष, वृद्ध, युवा और बालक जो कोई भी उस मूर्तिका प्रसिद्ध मूर्ति है। इस मूर्तिका मुख उत्तरकी ओर है, दर्शन करता है उसके हृदयमें उस मूर्तिकी पाश्चर्यकारक उपर मूर्तिका काई भाधार नहीं है, शिरके बाल घुघराले प्रतिमा, महानता और चतुर शिल्पीकी मनमोहक कलाका है,महामस्तकाभिषेकके कारण नीचेसे उपर तक बिजलीके सुन्दर चित्रपट अंकित हुए बिना नहीं रहता। मूर्तिका हरे, लाल, नीले, पीले श्रादि विभिन रंगोंके पश्वोंसे प्रत्येक अंग नूतन सुधामृतसे सराबोर जान पर्वतपर जानेका मार्ग रात्रि में भी प्रकाशमान था। मूर्तिके पड़ता है। अनेकवार दर्शन करनेपर भी वह ज्योंकी न्या