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अनेकान्त
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शिव्य मुनि चन्द्रदेवादिने उक्त चन्देकी रकम एकत्रित सिद्धान्तवसदिहमा है। शक सं. १५२०वि० सं०१.. की थी।
१५ में किसी यात्रीने इसमें चतुर्विशति तीर्थकरोंकी एक २ अकनवसदि-यह वसदि चन्द्रगिरि पर्वतके नीचे मूर्तिको प्रतिष्ठित कराकर विराजमान किया है। अब इस बनी हुई है, जिसे शिलालेख नं. १२४ ३२०, के अनु- मन्दिर में सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं रहे, ये मूडबिद्रीके सिद्धान्त सार होय्यसन वंशके द्वितीय राजा बलालके ब्राह्मण मन्त्री मन्दिरमें विराजमान हैं। चन्द्रमौलीके जैनधर्मावलम्बी होनेके बाद उनकी प्रचियका दानशाला वसदि-इस वस्तिका का निर्माण हुमा, नामकी पत्नीने शक संवत् ११०३ (वि० सं० १२३८) में
वत् १०३ (वि० स० १२५८) म यह कुछ ज्ञात नहीं है। परन्तु चिदानन्द कविके शक संवत् बनवाया था। मंत्रीके इस कार्यसे सन्तुभ होकर राजाने
१६०२ में रचित 'मुनिवंशाभ्युदय' नामक ग्रन्थसे इतना इस वसदिकी पूजनादि व्यवस्थाके लिये 'बम्मनहडि' नाम
जरूर ज्ञात होता है कि मैसूरके राजा दोहदेव राजवडयरके का एक प्राम दानमें दिया था। प्रचियका या भाचलदेवी- राज्यकालमें युवराज चिकदेवने सन् १६५६-७२ में इस केशारा निर्मित होनेके कारण इसका नाम अक्कनवसदि देवालयमें प्राकर पंचपरमेष्ठियोंकी मूर्तियोंके दर्शन कर इस पदा है। इस मन्दिरम गर्भगृह सुखनिवास नवरंग और वस्तिके सेवा-कार्यके लिये 'मदनेड' नामका एक ग्राम मुखमंडप है। गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथको सुन्दर मूर्ति दानमें दिया था। विराजमान है विग्रहके उपर सप्तफयवाला सर्व बना ६मंगायि वसदि-इस मंदिरमें गर्भगृह, सुखनासि हमा है और प्रभावली (भामयडन) में चतुर्विशति तीर्थ- दर्शनमाप है। गर्भगृह में शांतिनाथ भगवानकी॥ फुटकी करोंके चित्र अंकित है। गर्भगृहके सामने धरणेन्द्र और प्रतिमा विराजमान है। गर्भगृहके द्वारके दोनों भोर चमर पद्मावतीकी ३॥ फुटकी मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं। इस धारी ५ फुट उंची दो मूर्तियाँ है मुखमयसपमें वर्धमानवसदिमें कसौटीके अन्दर खम्मे जगे हुए हैं, जिनमें दर्श स्वामीकी मर्ति स्थापित है। इस मूर्तिके पीठमें एक शिलाकोंकि मुख प्रतिविम्बित होते हैं। ऊपर मन्दिरमें पूर्व चित्र- लेख नं. ४२६ (३३८) उस्कोर्णित है। इस मन्दिरके कखाके दर्शन होते हैं। मन्दिरके ये खम्भे बड़े ही दरवाजे में दो सुन्दर हाथी बने हुए हैं। शिलालेख कीमती है।
नम्बर १३२ (३१) ४३. (३३१) से पता ३नगर जिनालय-इस मन्दिरका निर्माण होय्य- चलता है कि श्री चारुकोतिकी भका और शिष्या 'मंगायि सन वंशके द्वितीय राजा बल्लालके नगर थोष्ठी तथा सम्माने इस मन्दिरका निर्माण कराया था इस कारण बम्मदेवहेगडे और जगवईके पुत्र और तथा नयकीति हमका नाम 'मंगायि बसदि' विभुत हुमा है। सिद्धान्तचक्रवर्तिके शिष्य मन्त्री नागदेव हेगडेने शक इस मन्दिरका दूसरा नाम त्रिभुवन चूदामणि है। सं० १११८ (.वि० सं० १२५३ ) में बनवाया था। नगरके ऐसा शिलालेख नं. १३२ (३४१) जिसका समय शक व्यापारियों द्वारा पोषित और संरक्षित होने पादिके कारण मम्वत् १२.७ के लगभग है, मालूम पड़ता है। भगवान इसका नाम 'नगरजिनालय' पड़ा है। इस मन्दिरमे गभ शान्तिनाथकी मूर्तिकी पीठमें उत्कीर्ण शिक्षालेखसे ज्ञात गृह, रंगमण्डप और दर्शन मण्डप हैं। गर्भगृहम भगवान होता है कि पंडिताचार्यकी शिष्या और देवराजकी रानी मादिनाथकी २० फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। शिला भीमादेवीने इसकी प्रतिष्ठा कराई थी । प्रस्तुत देवराज लेख १२२१२० से यह भी पता चलता है किन- विजयनगरके प्रथम देवराज जान पड़ते हैं। इस मन्दिरका यकी किंदेवके नाम पर 'नागसमुद्र' नामका एकतालाब भी जीर्णोबार कार्य गेरुसोप्पे गाँवके हिरियम्माके शिष्य गुम्मटने बनवाया था। जो इस समय 'जिगणे कट्ट' नामसे प्रसिद्ध शक सम्बत् ११३४ में कराया था। है। नयकीर्तिका समाधि मरण 1176 A. D. में हुअा ७. जैनमठ-यह मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है था। उनके शिष्य नागदेवने तब उनका स्मारक भी और न इसमें अधिक प्राचीन मूर्तियाँ ही हैं। जो मूर्तियाँ बनवाया था।
विराजमान है वे सब प्रायः १८वीं १९वीं सदीकी हात ४ सिद्धान्त वसदिइस मन्दिरके निर्माणके बहुत होती है। इस मठमें कागज पर लिखे हुए कई 'सनदपीछेसे सिद्धान्त अन्योंके रखने भादिके कारण इसका नाम पत्र' मौजूद है। मठमें बादपत्रीय प्रन्योंका एक महत्वपूर्ण