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अनेकान्त
[किरण
है। परन्तु वे इतनी गम्भीर है कि उनमें 'गागरमें सागर' प्रस्तुत जैन व्याकरणके दो प्रकारके सूत्र पाठ पाये की तरह पदे-पदे जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान भरा पडा। जाते हैं। प्रथम सत्रपाठके दर्शन उपरि लिखित चार
पाठवीं शतीके विद्वान भाचार्य हरिभद्रकी 'अनेकांत टीकाग्रंथों में होते हैं और दूसरे सूत्रपाठके शब्दावचन्द्रिका अबपताका' व्या षट् दर्शन समुच्चय मूल्यवान और सार- तथ शब्दार्शवप्रक्रियामें । पहले पाठमें १०..सत्र है। पूर्ण कृतियाँ हैं। ईसाकी नवों शतीके प्रकाण्ड प्राचार्य यह सूत्रपाठ पाणिनीयकी सूत्र पद्धतिके समान है। इसे विद्यानन्दके अष्टसहस्त्री, प्रामपरीक्षा और तत्वार्यश्लोक- सर्वाङ्ग सम्पन्न बनानेकी रष्टिसे महावृत्ति में अनेक वातिक बार्तिक, मादि रचनामों में भी एक विशाल किन्तु पालो- और उपसंख्याओंका निवेश किया गया है। दूसरे सूत्रपाठबना पूर्ण विचारराशि बिखरी हई दिखलाई देती। में ३७०० सूत्र हैं। पहले सूत्रपाठकी अपेक्षा इसमें ... इनकी प्रमाणपरीक्षा मामक रचनामें विभिन प्रामाणिक सूत्र अधिक हैं और इसी कारण इसमें एक भी वार्तिक मान्यवानोंकी मालोचना की गई है और प्रकसम्मत आदिका उपयोग नहीं हुआ है। इस संशोधित और प्रमाणोंका सयुक्तिक समर्थन किया गया है। सुप्रसिद्ध परिवद्धित संस्करणका नाम शब्दाव। इसके कर्ता वार्षिक प्रमाचन्द्र आचार्यने अपने दीर्घकाय प्रमेयकमल गुणनन्दि (वि०१. श.) प्राचार्य है। शब्दाव पर मार्तड और न्यायकमन में जैन प्रमाण शास्त्रसे भी दो टीकाएं उपलब्ब -(१) शब्दाणवचन्द्रिका सम्बन्धित समस्त विषयोंकी विस्तृत और व्यवस्थित विवे और (२) शब्दार्णव प्रक्रिया। शब्दाणवचन्द्रिका मामदेव चना की तथा ग्यारवीं शताके विद्वान अभय देवने मुनिने वि० सं० १२६२ में लिख कर समाप्त की है और सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मतितर्ककी टीकाके व्याजसे शब्दार्णवप्रक्रियाकार भी बारवीर शती चारुकीर्ति समस्त दार्शनिक वादोंका संग्रह किया है। बारवीं शतीके पपिहनाचार्य अनुमानित किये गये हैं। विद्वान् वादी देवराज सूरिका स्याद्वादरलाकर भी एक महाराज प्रमोघवर्ष . प्रथम ) के समकालीन शाकमहत्वपूर्ण प्रन्य है। तथा कलिकाल सबज्ञ पाचहेम टायन या पाल्यकीर्तिका शाकटायन (शब्दानुशासन) चन्द्रको प्रमाणमीमांसा भी जैन न्यायकी एक अनठी व्याकरण भी महत्वपूर्ण रचना है। प्रस्तुत व्याकरण पर रचना है।
निम्नाङ्कित मात टोकाएं उपलब्ध हैउक रचनाएनन्य न्यायकी शैक्षीसे एकरम अस्पष्ट
) अमोधवृत्ति-शाकटायनके शब्दानुशासन पर हॉ. विमलदायको समभंगतरंगियी और वाचक यशो- स्वयं सूत्रकार द्वारा लिखी गयी यह सर्वा धक विस्तृत विजयजी द्वारा निखित अनेकाम्तव्यवस्था शाम्बवार्ता- और महत्वपूर्ण टीका है। राष्ट्रकूट मरेश प्रमोषवर्षको समुषय तथा प्रष्टसहनीको टीका अवश्य ही नन्य म्यायकी बक्यमें रखते हुए ही इसका उक नामकरण किया गया शेल मे लिखित प्रतीत होती है।
प्रतीत होता है (२) शाकटायनम्यास अमोषवृत्ति पर व्याकरण-पाचार्य पूज्यपाद (विपी श.)का प्रमाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित यह बास इसके केवल 'जैमेन्द्रग्याकरण' सर्वप्रथम जैनण्याकरण माना जाता है। दो अध्याय ही उपलब्ध है। (३)चिंतामाण का महाकवि धनम्जय (6वीं शती) ने इसे अपविमरन (जघीयसीवृत्ति) इसके रचयिता यचवर्मा और प्रमोषबतलाया है। इस प्रन्य पर निम्नलिखित टीकाएँ वृत्तिको संचित करके ही इसकी रचना की गयी है। उपलब्ध है:
(१) मणिप्रकाशिका -इसके कर्ता अजितसेनाचार्य है। (१) अभयनन्दिकृत महावृत्ति (२) प्रभाचन्द्रकृत
(१) प्रक्रियासंग्रह-भट्ठोजीदीक्षितकी सिद्धांतकौमुदीकी
(१) प्रक्रिय शब्दाम्भोजभास्कर प्राचार्य श्रतकीर्तिकर पंचव- पति पर लिखी गयी यह एक प्रक्रिया टीका है. इसके प्रक्रिया, (५)पं० महाचन्द्रात बघुजैनेन्द्र ।
कर्ता अभयचन्द्र प्राचार्य है। (१) शाकटायन टीका१ प्रमाणमकबरस्य पूज्यपादस्य जपणं ।
२जैन साहित्य और इतिहास ( पं. नाथूराम प्रेमी) धनजयको काम्यं रनवषमपश्चिमम् ।
का 'देवनम्दि और ' उनका जैनेन्द्रग्याकरण' -धर्मजयनाममाता
शीर्षक निवन्ध