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किरण )
संस्कृत-साहित्यके विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग
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भावसेना विधदेवने इसकी रचना की है यह कातन्त्र उस्लेखनीय नाटक है। भादिके दो नाटक महाभारतीय रूपमाला टीकाके भो रचयिता है।) रूपसिदि-ब-कथाके माधारपर रचे गये है और उत्तरके दो रामकथाके कोमुदीके समान यह एक पकाय टीका है। इसके पर्वा बाधारपर । हेमचन्द्र प्राचार्य शिव्य रामचन्द्ररिक दयापाव वि. वीं श.) मुनि हैं।
अनेक नाटक उपलब्ध है जिसमें मलविवार, सत्यहरिचंद्र, प्राचार्य हेमचन्द्रका सिद्धहेम शब्दानुशासन भी महत्व कौमुदी मित्रानंद, राघवाम्युदय, निर्भयभीमण्यायोग पूर्व रचना है। यह इतनी भाकर्षक रचना रही है कि इस- आदि नाटक बहुत ही प्रसिद्ध हैं। के माधार पर तैयार किये गये अनेक व्याकरण अन्य उप- श्रीकृष्णमिश्रके 'प्रबोधचंद्रोदय' की परतिपर रुपकालब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन व्याकरण त्मक ( Allegorical) शैलीमें लिखा गया यशपाल ग्रंय जैनाचार्योंने लिखे है और अनेक जैनेतर व्याकरण (१५वीं शती.) का 'मोहराज पराजय' एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टोका भी लिखी है। पूज्यपादने पा नाटक है। इसी शैली में लिखे गये वादिचन्द्रसारकृत सनीय व्याकरण पर शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा ज्ञानसूर्योदय तथा यशश्चंद्रकृत मुदितकुमुदचंद्र प्रसाम्प्रथा जो सम्प्रति अप्राप्य है। और जैनाचार्यों द्वारा सारस्वत दायिक नाटक हैं। इनके अतिरिक्त जयसिंहका हम्मीरमद. व्याकरण पर लिखित विभिन्न बीस टीकाएं आज भी उप- मर्दन नामक एक ऐतिहासिक नाटक भी उपलब्ध है।
काव्यशर्ववर्मका कातंत्रव्याकरण भी एक सुबोध और संक्षिप्त जैन काव्य-साहित्य भी अपने दंगका निराला है। व्याकरणतया इस पर भी विभिन्न चौदह टीकाएँ प्राप्य
काव्य साहित्यसे हमारा प्राशय गय काम्य, महा काव्य,
चरित्रकाव्य, चम्पकाव्य, चित्रकाव्य और दूतकाव्योंसे है। अलङ्कार
गद्यकाव्यमें तिलकमंजरी (१७.ई.) और घोडयदेव मलक्कार विषय में भी जैनाचायौंकी महत्वपूर्ण रचनाएं (वादीभसिंह "वीं सदी) को गधचिन्तामणि महाकवि उपलब्ध हैं। हेमचन्द्र और वाग्भटके काव्यानुशासन तथा बाणकृत कादम्बरीके जोपकी रचनाएँ हैं। बाग्भटका वाग्भटालंकार महत्वकी रचनाएँ हैं जिनसेन महाकाव्यमें हरिचंद्रका धर्मशर्माभ्युदय, वीरनन्दिका माचार्यकी अलंकार चिन्तामणि और अमरचन्दकी काव्य- चन्द्रप्रभचरित अभयदेवका जयन्तविजय, अईहासका करूपता बहुत ही सफल रचनाय हैं। . मुनिसुव्रत काव्य, वन्दिराजका पार्श्वनाथचरिख वाग्भटका
जैनेतर अलंकार शास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी तिपय नेमिनिर्वाणकाव्य मुनिचन्दका शान्तिनाथचरित और टीकाएँ पायी जाती हैं। काव्यप्रकाशके ऊपर भानुचन्द्रगहि महामनका प्रयुम्नचरित्र, भादि उत्कृष्ट कोटिके महाकाव्य जयनन्दिसूरि और यशोविजयगणि (तपागच्छ की टीकाए तथा काव्य है। चरित्र काव्यमें जटासिंहननिका बर:उपलब्ध हैं। इसके सिवा, दरडीके काव्य दश पर त्रिभुवन चरित, रायमल्लका जम्बूस्वामीचरित्र, असग कविका चद्रकृत टीका पायी जाती है और हटके काव्यासकार महावीर चरित, भादि उत्तम चरित काम्य माने जाते है। पर नमिसाधु (१२५ वि०सं०) के टिप्पण भी सारपूर्ण है। चम्पू काव्यमें प्राचार्य सोमदेवका यस्तिबकाम्पू नाटक
(वि. १.१६)बहुत ही ख्याति प्राप्त रचना है। अनेक नाटकीय साहित्यसजनमें भी जैन साहित्यकारोंने विद्वानोंके विचारमें उपलब्ध संस्कृत साहित्य में इसके और अपनी प्रतिभाका उपयोग किया है । उभय-भाषा-कवि- का एकमा
का एकभी चम्पू काम्य नहीं है। हरिश्चन्द्र महाकविका चक्रवर्ति इस्तिमक्स (18वीं श). विक्रांतकौरव, जीवन्धरचम्पू तथा महासका पुरुदेवचम्प (१३वीं शती) जयकुमार सुलोचना) सुभद्राहरण और अंजनापवनंजय भी उच्च कोटिकी रचनाएं हैं। चित्रकाम्यमें महाकष
धनंजय (८वीं श०)का द्विसन्धान शान्तिराजका पचजिनरत्वकोश (भ.मों.रि..पूना)
संधान, हेमचन्द तथा मेषविजयगबीके सप्तसम्यान, * जिनरलकोट (मो रि..., पा)। जगनाथ (१६॥ वि०सं०)का चर्दियति सम्मान तथा