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________________ २५२ ] अनेकान्त [किरण ८ - सहित मध्यलोक प्रतीत होते थे। इस प्रकार वृद्धि पाते अपूर्व चेष्टा और उनके विराट रूपको ज्ञातकर राजा हुए विष्णुके रूपको देखकर भय सन्त्रस्त सुरासुर शिला, महापद्म नगर और जमपद सहित संघकी सरणमें पाया पर्वत शिखर और वृक्षादि प्राक्षेप करते थे। जो उनके और गद्गद् वाशीसे कहने लगा-मैं भगवान सुबत कारकी वायसे उछलकर इतस्ततः गिरे जाते थे। विशाबदेह मणगारका शिष्य श्रमणोपासक है मेरी रक्षा कीजिये में वाले विष्णुको देखकर भयत्रस्त अप्सराए किसर, कि- आपके शरणागत हूँ।' श्रमय संघने कहा-'तुमने कुपात्रपुरुष, भूत, यश, राक्षस, महोरग, ज्योतिषी देवादि यतः को राजा स्थापित किया, हमें खबर भी नहीं दी यह स्ततः चिल्लाते, कपिते हुए दौड़ने लगे। देखते-देखते तुम्हारी बड़ी भूल हुई । प्रस्तु, हमारी तो कोई बात नहीं, विष्णुका शरीर लाख योजन ऊंचा हो गया। अत्यन्त तुम्हारी विजय प्रमत्त वृत्ति और असावधानीसे भाज तेजस्विता के कारण विष्णु किसीकी प्रज्वलित अग्नि व किसी जोक्यका अस्तित्व ही खतरेमें पा गया है। अतः श्रमण को चन्द्रमा प्रतीत होते थे। विष्णुके शरीरमें क्रमशः वह विष्णकुमारको शान्त करो, तत्पश्चात् समस्त श्रमासंघ स्थल नाभि, कटि प्रदेश और घुटनों पर ज्योतिष्कोंका मार्ग विष्णके चरणोंमें करबद्ध प्रार्थना करने लगा। हे विष्णु शांत भागया। भूमि कंप हुमा, विष्णुने मन्दरगिरि पर अपना हो। संघ महापदम राजाको क्षमा कर दिया। भाप दाहिना पैर रखा, इस पेरको पठाते ही समुद्र जल चुन्ध चरण न हिलाकर स्वामाविक रूपमें पायें। पापके तेजसे हमा विष्णुकी हथेलियोंको ऊपरको उठाते ही सबसे मह- कम्पित पृथ्वी रसातलको जा रही है यह श्रमण संघ द्धिक देवोंके अंगरक्षक बात हो उठे। मापके चरणोंके अति निकट है अवस्थित है । लाखों योजन ऊंचा होने के कारण श्रमण मर्यादाके बाहर श्रमणइस प्रकारको विकट स्थितिमें इन्द्रका प्रासन कम्पाय संघके वचन नहीं सुननेसे बहुश्रुत श्रमणोंने कहा-विष्णुकी' मान हुमा । विपुल अवधिज्ञानसे सारी परिस्थिति शातकर श्रोत्रन्द्रिय गगन मण्डल के किसी भागमें है लाखों योजन इन्द्रमे नृत्य और संगीत मंडलीको श्राशा.दी कि नमुचिक ऊँची देह है और १२ योजनसे भागे शब्द नहीं सुनाई अत्याचारसे कुपित होकर श्रमण भगवान विष्णुने विराट देते । अतः भगवानके चरणोंका स्पर्श करनेसे वे देखेंगे तो रूप धारण किया है अतः उन्हें गीत नृत्यादि द्वारा नम्रता श्रमणसंघको देखकर अवश्य शान्त होंगे। यह विचार कर पूर्वक शान्त करो। इन्द्रावास मेनका रम्भा, उर्वशी और सबने अब चरण दबाया तो विष्णु महषिने पृथ्वीकी धार तिलोत्तमाने विष्णुके दृष्टिक समक्ष नत्य किया। वादिध्वानके देखा अपने अन्तःपुर और परिजनोंके साथ राजा महापदम साथ 'भगवान शान्त हो भावमय कर्ण-मधुर स्तुति करते हुए के श्रमणसंघकी शरणमें हैं तथा श्रमणसंघको भी शान्त जिनेस्वरोंक चमादि गुण वर्णन मह तुम्बरू, नारद हा हा हु. हो, बोलते हुए स्वचरणों के निकट देखकर उन्होंने सोचा ह. और विश्वावसुन गायन किया। भगवान विष्णुको प्रसमा 'मक्खनकी तरह कोमल स्वभाववाले श्रमणसं घने राजा करने के लिए देवराजइन्द्र के मब परिवार प्रागमनकी बात महापदमको अवश्य ही क्षमा कर दिया, अतः सबकी सुनकर बैतान्य श्रेणिवासी महाधिक विद्याधर भी पाकर इच्छाका मुझे भी उलंघन नहीं करना चाहिए। मिल गए। और विष्णुके चरणकमलोंमे लीन होकर स्तुति देवोंके वचनमे मृदु हृदयवाले विष्णु अणगार, करने लगे। तुबुरू और नारद ने विद्याधरों पर प्रसन्न हो संघकी इच्छानुसार अपना रूप संकोच कर शरदऋतुके कर संगीत कलाका वरदान देते हुए सप्तस्वराश्रित गधार चंद्रमाकी तरह सौम्य होकर भूमि पर विराजमान स्वरमें विष्णु गीतिका प्रदान की। हुए। देव, दानव, विद्याधरादि, वर्ग पुष्प वृष्टि करके 'उत्तम माहवस्ट्रिया, न हु कोवां वरिणो जिणदहि। हुँति हु कोवनसीलय, पाति बहूणि भमराई (१) x नाहटाजीने मुनि विष्णुकुमारके वस्त्राभूषणांकित . हे माधुश्रीष्ठ शान्त हो जिनेश्वरने भी क्रोधको उत्तम वामन रूपका जो अलंकृत वर्णन किया है। वह दिगम्बर नही कहा । जो कद्ध होता है वह बहुसंसार भ्रमण करते परम्पराके हरिवंशपुराणमें नहीं है। और भी जहां कथाहैं। विद्याधरोंने भाभारपूर्वक यह गीतिका प्रहब की। में अतिरंजितरूप जान पड़ता है। वह भी नहीं है। इधर नमचिके अविनीति पूर्ण और भगवान विष्णुकी
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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