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________________ विषय-सूची १ समप्रसारकी ची गाथा और श्रीकानजी स्वामी- ५ कुरलका महत्व और जैनकत्त स्व-[श्रीविद्याभूषण [सम्पादक ... १७७ ५ ० गोविन्दराय जैन शास्त्री " २०० २ ऋषबदेव और शिबजी ६ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन[ले. बाबू कामताप्रसाद जैन .. १८५ [पं. दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल ३ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण कटारिया, केकड़ी .. २.. [ परमानन्द जैन शास्त्री ." १८८ . जिनशासन (प्रवचन) [कानजी स्वामी ... " ४ हिन्दी-जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान दुःसह भातृ-वियोग-जुगलकिशोर मुख्तार टाइ.२ पेज [श्रीकुमारी किरणवाला जैन ... १९ श्री बाहुबलिजिन पूजाका अभिनन्दन टाइटिल ३ पेज दुसह भ्रात-वियोग !! श्रीमान् बाबू छोटेलालजी और काबु नन्दलालजी कलकत्ताके पत्रोंसे यह मालूम करके कि उनके सबसे छोटे भाई लालचन्दजीका गत २२ अक्टूबर को देहान्त होगया है, बड़ा ही दुःख तथा अफसोस हुआ !! भादों की अनन्तचतुर्दशी तक लालचन्दजी अच्छे राजी खुशी थे और उस दिन उन्होंने सब मन्दिरों के दर्शन भी किये थे! पूर्णिमासे उन्हें कुछ ज्वर हा जो बढ़ता गया और आठ दिन उसीकी चिकित्सा होती रहो; बादको पेटमें जोरसे ददे प्रारम्भ हुआ जो किसी उपायसे शान्त न होनेके कारण पेटको चीरनेकी नौबत आई और कलकत्तेके छह सबसे बड़े नामी डाक्टरों तथा सिविन मर्जनोंकी देख रेखमें पेटका आपरेशन कार्य सम्पन्न हुआ और उससे यह जान पड़ा कि अग्निकी थेली में छिद्र होगये है जिनका होना एक बहुत ही खतरनाक वस्तु है । सब डाक्टरोंने मिलकर बड़ी सावधानीके साथ जो कुछ चिकित्सा की जा सकती थी वह की और जैसे तैसे १६ दिन तक उसे मृत्यु मुग्वमें जानेसे रोके रक्खा परन्तु अन्तको कालकी भयङ्कर झपेटसे वह न बच सका और सब साक्टरादि देखतेके देखते रह गये !!! इस दुःसह भ्रातृ वियोगसे दोनों भाइयों को जो सदमा पहुँचा है उमे कौन कह सकता है! अभी आपके बड़े भाई बाबू दीनानाथजीके वियोगको एक ही वर्ष होने पाया था और उससे पहले उनकी माताजी तथा दूसरे बड़े भाई गुलजारीलालजीका भी वियोग होगया था। इस तरह दो तीन वर्षके भीतर आपको तीन भाइयों और एक माताजीका वियोग सहन करनेके लिये बाध्य होना पड़ा है, यह वड़ा ही कष्टकर है ! लालचन्दजीके पहली स्त्रीसे एक लड़का और एक लड़की (दोनों विवाहित) और दूसरी स्त्रीसे आठ बच्चे हैं. जिनकी बड़ी समस्या एवं चिन्ता दोनों भाइयोंके सामने खड़ी होगई है। इधर बाबू छोटेलालजी कई वर्षोंसे बीमार चले जाते हैं, ये सदमे और चिन्ताएँ उनके स्वास्थ्यको और भी उभरने नहीं देतीदस दिनको खड़े होते है तो फिर गिर जाते है और महीनोंके लिये रोगशय्या पर सवार हो जाते हैं। इसीसे जैन साहित्य और इतिहासकी सेवाके जो उनके बड़े मन्सूबे हैं वे यों ही टलते जाते हैं और कुछ भी कार्य हो नहीं पाता, यह उनके ही नहीं किन्तु समाजके भी दुर्भाग्यका विपय है जो ऐसे सेवाभावी सज्जनों पर संकट पर संकट उपस्थित होते चले जाते हैं। आपके इस ताजा संकटमें वीरसेवामन्दिर-परिवार अपनी संवेदना व्यक्त करता हुआ मृतात्माके लिये परलोकमें सुख-शान्तिकी भावना करता है और हृदयसे कामना करता है कि दोनों भाइयों और उनके तथा मृतात्माके सारे कुटुम्ब-परिवारको धैर्यकी प्राप्ति होवे । जुगलकिशोर, मुख्तार
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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