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भक्तियोग-रहस्य
जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अविकसिन, अपविकसित, बहुविकसित और पूर्णअथवा शुद्धनिश्चयनयकी अपेला परस्पर समान है- विकसित ऐसे चार भागोंमें भी उन्हें बांटा जा सकता कोई भेद नहीं-मबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक
है। और इमलिए जो अधिकाधिक विकसित हैं वे ही है। प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्त दर्शन, अनंत
स्वरूपसे ही उनके पूज्य एवं आराध्य हैं जो अविकज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीयादि अनन्त सित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका शक्तियोंका प्राधा-पिण्ड हो
विकाम मबके लिये इष्ट है। कालसे जीवों के साथ कममल लगा हुआ है, जिसकी ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि संसारी मूल प्रकृतियां पाठ, उत्तर प्रकृतियां एकसौ अड़तालीस जीवोंका हित इसीमें है कि वे अपनी विभाव परिण
और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य है । इस कर्म मलके तिको छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात सिद्धिको कारण जीवोंका असली स्वभाव आच्छदित है, उनकी प्राप्त करने का यत्न करें। इसके लिए आन-गुणोंका वे शक्तियाँ आवकसित हैं और वे परतन्त्र हुए नाना परिचय चाहिये, गुणोंमें बर्द्धमान अनुराग चाहिये प्रकारकी पर्याय धारण करते हुए नजर आते है। और विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धा चाहिये। विना अनुअनेक अवस्थाओंको लिये हुए संसारका जितना भी गगके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अननुरागी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है- अथवा अभक्त हृदय गुणग्रहयका पात्र ही नहीं, विना उसीके भेदसे यह सब जीव-जगत भेदरूप है; और परिचयके अनुराग बढ़ा नहीं जा सकता और विना जीवकी इस अवस्थाको विभाव-परिणति' कहते हैं। विकास-मार्गको दृढ श्रद्धाके गुणोंके विकासकी ओर जब तक किसी जाव की यह विभव परिणति बनी रहत। यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इम लिये है, तब तक वह 'संसारी' कहलाता है और तभी तक अपना हिन एवं विकार चाहनेवालोंको उन पूज्य महा उसे संसारमें कमांनुसार नाना प्रकारक रूप धारण पुरुपों अथवा सिद्धात्माओंकी शरण में जाना चाहियेकरके परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है; उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुणों में अनुराग जब योग्य साधनोंके बलपर यह विभा०-परिणति बढ़ाना चाहिये और उन्हें अपना माग-प्रदर्शक मानमिट जाती है-आत्मामें कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं कर उनके नक्शे कदम पर चलना चाहिये अथवा रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाडगरूपसे उनकी शिक्षाओं पर अमल करना चाहिये, जिनमें अथवा पर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह आत्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अथवा जीवात्मा संसारपरिभ्रमणसे कूटकर मुक्तिको प्राप्त हो पूर्णरूपसे विकाम हुआ हो; ही उनके लिये कल्याजाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, एका सुमम माग है । वास्तवमें ऐसे महान् आत्माओं के जिसकी दो अवस्थाएँ हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विकसित प्रान्मस्वरूपका भजन और कीतेन ही हम विदेहमुक्त । इस प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीयोंके 'संसारी' संसारी जीवोंके लिए आत्माका अनुभवन और मनन और 'सिद्ध' ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं, अथवा है, हम 'सोऽहं ' की भावनाद्वारा उसे अपने जीवनमें