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________________ - ११२] अनेकान्त [किरण ४ उतार सकते हैं और उन्होंके-अथवा परमात्मस्व- काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर संचित कर्मोंके नाशसे रूपके- आदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कोंकी गठन करते हुए अपने आत्मीय गुणका विकास सिद्ध निजरा हाती या उनका बल क्षय होता है तो उधर करके तद्रूप हो सकते हैं । इस सब अनुष्ठानमें उनकी उन अभिलषित गुणांका उदय होता है, जिससे आत्माकुछ भी गरज नहीं होती और न इसपर उनकी कोई का विकास सधता है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे प्रसन्नता ही निर्भर है-यह सव साधना अपने ही महान् आचार्यों ने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिउत्थानके लिए की जाती है। इसीसे मिद्धिके साध- को कुशल परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा नोंमें 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है. जसे श्रेयोमार्गको गुलभ और स्वाधीन बतलाया है और 'भारत-मार्ग' भी कहते है। अपन तजम्वी तथा सुकृती आदि होने का कारण भी सिद्धिका प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्तिद्वारा इसीका निदिप्ट किया है और इसी लिये स्तुति आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा वन्दनादिके रूपमं यह भक्ति अनक नमित्तिक क्रिया'भक्ति मार्ग' है और भक्ति' उनके गुणोंमें अनु- ओंमें ही नहीं, किन्तु नित्यकी षट आवश्यक कियारागको, तदनुकूल वत्तंनको अथवा उनके प्रति गुणा- श्राम भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक नुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्र.त्तिको कहते हैं, जो क्रियाएं है और अन्तहट पुरुषों (मुनियों तथा कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पति एवं रक्षाका साधन है। श्रावको , के द्वारा आत्मगुणक विकासको लक्ष्यमें स्तुति, प्राथना, वन्दना. पा. ना, पूजा, सेवा, श्रद्धा रखकर ही नित्य की जाती हैं श्रार तभी वे आत्मा और आराधना ये मब भक्ति के ही रूप अथवा नामा- स्कर्षकी साधक होती हैं। अन्यथा, लौकिक लाभ, न्तर हैं स्तुति-पूजा-वन्दनादि रूपसे इम भक्तिक्रि- पूजा प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढ़ि आदिकं वश होकर याको 'सम्यक्त्ववर्द्धिनी क्रिया' बतलाया है. शुभोप- करनसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन सकता योगि चारित्र' लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म' भी और न प्रशस्त अध्यवसायके विना संचित पापों (खा है जिसका अभिप्राय है • पापकम-छेदनका थवा कर्मों का नाश हाकर आत्मीय गुणोंका विकास अनुष्ठान'। सद्भक्तिके द्वारा श्रोद्धत्य तथा अहंकारके ही सिद्ध किया जा सकता है । अतः इस विषयमें त्याग पूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायका लक्ष्वद्धि एव भावद्धि पर दृष्टि रखनेकी खास कुशल परिणमकी- उपलब्धि होती है और प्रशस्त जरूरत है, जिसका सम्लन्ध विवेकसे है। विना अध्यवसाय अथवा परिणामोंकी विशुद्धिसे संचित विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नही होती, कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है जिस तरह और न विना विवेककी भाक्त सद्भक्ति ही कह काष्ठक एक सिरेमें अग्निके लगनेसे यह सारा ही लाती है। श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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