________________
१४८]
अनेकान्त
[किरण ४.
पारमा और पुद्गल स्वयंभू. स्वयं अवस्थित हैं।न से बुद्धिपूर्ण सुतर्क द्वारा 'मात्मा' के अस्तित्व और उसकी इन्हें किसीने उत्पन्न किया न कोई उन्हें नष्ट कर सकता महानताका प्रतिपादन करें और लोगोंमे इस धारणाका है। ये सर्वदासे है और सर्वदा रहेंगे । न कभी इनकी पूरा विश्वास बैठादें कि हर एक व्यक्तिम अनन्त शक्तियोंसंख्या कमी होगी न बढ़ती। पारमा-पुद्रलके अनादि- का धारी पूर्ण ज्ञान वाला शुद्ध पारमा अन्तर्हित है। सम्बन्धसे जब छुटकारा पाता है तो अपने स्व-स्वभावमें व्यक्तियोंके भेद या भिन्नताएं कंवल शरीरॉकी विभिन्नतास्थिर होता है, अन्यथा पात्मा सर्वदा पुगलके साथ ही के ही कारण हैं। सबमें समान चेतना है। सबके दुखरहता है। भारमाका-पुगलसे छुटकारा केवल 'पूर्णता' होने सुख समान हैं इत्यादि । एवं सभी इस अखिल विश्वक पर ही हो सकता है । ज्ञानकी पूर्णता ही वह पूर्णता है प्राणी और एक ही पृथ्वी पर पैदा होने तथा रहने के कारण जहां कुछ जाननेको बाकी नहीं रह जाता।
एक दूसरेस घनिष्ट रूपसे सम्बन्धित एक ही बड़े कुटुम्बके हम संसारमें रह कर सारी सृष्टिकी मददसे ही सम्यक् सदस्य है। सबका हित सबके हितमें सन्निहित है। दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के द्वारा पूर्णताको आत्माएं तो अलग अलग हैं पर पुद्गल शरीरों या प्राप्त कर सकते हैं और वह पूर्णता हो मोत है। यही पुद्गतका सम्बन्ध परमाणु रूपमे भी और संघ रूपमें भी मानव-जन्म लेने या पानेका भी एकमात्र प्रादर्श ध्येय सारे संसार और सार विश्वसे अक्षुण्ण, अटूट और अविचल और चरम लक्ष्य है। जो व्यक्ति इस ध्धेयको या लच्यको है। संसार में स्थायी शान्ति, सर्व साधारणकी समृद्धि और सम्मुख रख कर संसारमें 'संचरण' करता है वही सतत सच्चे सुम्बकी स्थापना सार्वभौमरूपमे ही हो सकती प्रयरन-द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर उठता उठता एक दिन इस है। व्यक्तिगत या अलग अलग देश भौतिक ( Mite'पूर्णता' को प्राप्त कर मोर पा जाता है।
mal) उमति भले ही करलें पर वह न सच्ची उन्नति संसारकी सारी विडम्बनाएं, दुःख शोक, रगड़े झगड़े हैन उनका सुख ही सच्चा सुख है। सच्चा सुग्व, सच्ची उगहाई, युद्ध, रत्तपात, हिसादि केवल इसी कारण होते हैं उन्नति और सच्ची एवं स्थायी शान्ति तो तभी होगी जब कि मनुष्य अब तक 'पारमा' की महत्ता या महानताको सभी मानवारे समान प्रास्माकी अवस्थिति समझ कर ठीक ठीक नहीं जान या समझ सका। आधुनिक विज्ञानने सबको उचित एवं समान सुविधाएं दी जाये और मामाइतनी बड़ी उन्नति की पर वैज्ञानिक स्वयं नहीं जिक, राजनैतिक तथा प्राधिक समानताएं अधिकसे अधिक जानते कि:-वे क्या है? कौन है? उनके जीवनका सभी जगह सभी देशामे सभी भेदभावके विचार दूर करके अन्तिम लक्ष्य क्या है ? इत्यादि । विभिन्न धर्मों और संस्थापित, प्रवर्तित और प्रबंधित को जाय । यही मानव दर्शन-पद्धतियोंने एक दूसरेके विरोधी विचार संसारमें धर्म है. यही जैन धर्म है, यही वैष्णव धर्म है, यही हिंदू प्रचारित करके बड़ा ही गोलमाल और गड़बड़ फैला धर्म ई, यहो ईसाई धर्म है--यहो सरुवा है, चाहे इसे रखा है। इन विभेदोंके कारण लोग एक सीधा सच्चा जिस नामसे सम्बोधित किया जाय या पुकारा जाय । मार्ग निर्दिष्ट नहीं कर पाते और भ्रममें भटकते ही रह धर्मगुरुओं और संरके विद्वानांका यह कर्तव्य है जाते हैं। अब आवश्यकता है कि विचारक लोग अाधु-किस विज्ञान सत्य-बुद्धिऔर तर्कक युगमें रूढ़िगत निक विज्ञानके आविष्कारों और प्राप्त फलोंकी सहायता
गलत मान्यतामोको छोड़कर आपसी विरोधाको हटाबें और संक्षेपमें यही जैन शासन' है। यही जैन शासन मानव मात्र को सच्चे हितकारी भविरोधी प्रारमधर्मकी का ध्येय, या सारांश है और यही 'जैन शासन' के प्रति- शिक्षा देकर संसारको आगे बढ़ायें और अखिल मानवपादन या प्रवर्तनका अर्थ है।
ताका सचमुच सच्चा कल्याण करें।