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आत्मा, चेतना या जीवन
कर्म या किसी कीदेका शरीर उस कीदेके कर्म करता या इन्द्रियों को बनावटों और योग्यतामों पर निर्भर है । इत्यादि ।
__ करती है। कर्मोके अनुसार कार्माण शरीरमें परिवर्तन होता रहता
___सब कुछ होते हुए और पुद्गत शरीरके साथ रहकर है। अनादिकालसं अबतक परिवर्तन होते होते ही किसी
अनादि कालसं कम करते हुए भी प्रापमा पारमा ही जावधारीका कार्माण शरीर उस विशेष प्रारमाको लिए
रहना है और जड जड ही रहना है, एवं भारमाके गुण हुए उस जीवधारीक उस शरीरके विशेष रूपम संगठित
ज्ञान-चेनना प्रात्मामें ही रहते हैं और ज्योंके स्यों रहते हैं और निर्मित हुए रहनेका मूल कारण है । विभिन्न
तथा पुद्गलके गुण-जडत्व अथवा हलन-चान इत्यादिकी व्यक्कियाकी विभिन्न प्रवृत्तियो और योग्यतामांकी विभि
योग्यता पुगलमे हो रहते हैं और ज्योके त्यों रहते हैं । म न्नतामाका भी यही मूल कारण है। अनादिकालय अब
धारमाके गुण पुद्गल में जाते हैं न पुद्गलके गुण श्राग्मामें । तक संगठित न जान किम कर्मपुजके प्रभाव में काई कि
भारमा सर्वदा शुद्ध ज्ञान चेतना-मय ही रहता है। कोई कर्म करता है। विभिन्न कर्म पुगौंका सम्मिलित संगठित शरीर ही कार्माण शरीर है। कार्माण शरीर भी
यदि पारमा पुद्गलके साथ अनादिकालसे नहीं रहता पुद्गल-निमित ही है । (कार्माण शरीरको बनावट और
तो उसे अलग करने या होनेकी जरूरत नहीं होती। उसमें परिवर्तनादिकी जानकारीके लिये जैन शास्त्रीका दानाक गुण भार स्वभाव भित्र भितह इसस दाना अलग मनन करें और मरा लेख 'कर्मोंका रामायनिक सम्मिश्रण' अलग हो सकत ह ार ।
अलग हो सकते है और हाते हैं। प्रारमाका पुद्गलसे दखें जो 'अनकारत" को गत किरणमें प्रकाशित हो
छुटकारा या मुक्ति या मोक्ष हो जाना ही या पा जाना ही चुका है।)
मात्माका 'स्व भाव' और किसी जीवधारीका परम लय ___ कहनेका तात्पर्य यह कि कर्म जो भी होते है वे
या एक मात्र अन्तिम ॥ है। मांसपा जाने पर पारमापुदगल-द्वारा ही होते हैं। प्रारमा स्वयं कर्म नहीं करता। को क्या दशा हाती है या वह क्या अनुभव करता है इस प्रास्माका गुण कर्म करना नहीं है। प्राप्माका गुए तो
पर शास्त्रांम बहुत कुछ कहा गया है यहाँ उसे दुहराना 'ज्ञान' है । ज्ञानका अर्थ है जानना । प्रारमाका यह गुण
इस छोट लेग्वमें सम्भव नहीं है। प्रान्मा पुद्गलसे छुट सर्वदा श्रात्मामें ही रहता है और इसी कारण ही जीव
कारा पाकर ही अपने शुद्ध स्व-भावमं स्थिर होता है; यही धारियों में ज्ञान या चेतना रहती या होती है । जलवस्तु
वह अवस्था है जिसे पूर्णज्ञानमय-निर्विकार-परमानन्द 'जड' है और यह जरत्व ज्ञान शून्यता, या चेतना
अवस्था कहते है। यहाँ कुछ भी दुम्ब क्लेशादि रूप सामा हितता गुण सर्वदा जड या पुदगल (Matter )
रिक अनुभव नहीं रह जातं । पारमा म्वयं अपने में लीन म्वामें ही रहता है। हलन चलन या कर्मोका प्राधार भी जड
धीन स्व सुम्बका शाश्वत अनुभव करता है । यह वा पूर्णता ही है। संज्ञान कर्म या सज्ञान हजन चलन या सचेतन
है जहाँ कोई कमी, कोई बाधा, कोई इच्छा, कोई चिन्ता, क्रियाकलाप मास्मा और जडके संयुक्त होनेके कारण ही
कोई संशय, काई शंका, काई भय, काई बन्धनादि एकदम
नही रह जाते । मारमा पर्ण निर्विकल्प मत-चिन् प्रानन्द होते हैं। अन्यथा केवल मात्र जड वस्तुओके कर्म या
परमात्मा हो जाता है। हलन-चलन इत्यादि चेतनना-रहित ही हो सकते है या होते हैं। टेलीफोन या रेडियो यन्त्रमे शब्द निकलते हैं मात्माको पुद्गलसे छुटकारा दिला कर इसी परमात्मा पर वे स्वयं कुछ समझ नहीं सकते-उनमें यह शक्ति या पदकी प्राप्ति के लिए हो विश्व या संसारको सारी सृष्टि है गुण ही नहीं है। इसी तरह फोटो इलेक्ट्रिक मेल या और इस सृष्टिका सब कुछ होता या चलता रहता है। टेली विजन तरह तरहको रूपाकृतियोंका साक्षात दृश्य सृष्टिका एक मात्र ध्येय ही यही है, अन्यथा सृष्टिका कोई उपस्थित करते है पर स्वयं कुछ भी नही जान, समझ अर्थ ही नहीं होता । सृष्टि या विश्व या विश्व में विद्यमान देख, या अनुभव कर सकते । अनुभव तो वही कर सकता सब कुछका होना मत्य, शाश्वत और साधार है और इसी है जिसमें चेतना हो। अनुभव या ज्ञानकी कमी वेशी लिए मार्थक है। इसे असत्य, क्षणभंगुर या कोरा नाटक चेतना कराने वाले आधारों या माध्यम स्वरूप शरीरों समझना गलतो. मिथ्या, और भ्रम है।