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________________ - - २७४] अनेकान्त [किरण विषयमें प्रमेयकमनमार्तण्ड देखें । उक्त दो चरण युक्त्यनु नहुमा तो ये मब समीचीनशास्त्र जन्मान्धके नेत्रों पर शासनक है जो कि संस्कृतम उद्धत हैं। चश्मा लगानेके समान हैं-जो निरस्ताग्रह नहीं होता है (३) समाधान--- वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, वह प्रकृतमें जन्मान्ध तुल्य है कि स्यावाद रूप सफेद समन्तभद्र, उमास्वाति-गृपिच्छाचार्य, और प्रकलङ्क चश्मा उसको यथार्थ वस्तुस्थिति देखने में निमित्त कारण जैसे महान् प्राचार्योके द्वारा प्रतिपादित अथवा संचित नहीं हो रहा है। यदि वह निमित्त कारण उसके देखने में है जिनशासनसे कोई भिन्न नहीं है। तो वह जम्मान्ध नहीं है। सम्पूर्ण द्वादशांग या उसके (४) इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिन- अवयव प्रादिक रूप समयसारादिक स्यावाद रूप है अतः शासनके साथ उसकी संगति बैठ जाती है कि कहीं पर वे सब महान प्राचावों द्वारा कहे गये प्रन्थ सत्यके आधार किसीने संक्षिप्त रूपसे वर्णन किया है तो किसीने विस्तारसे, पर ही है। किसीने किसी विषयको गौण और किसीको प्रधान रूपसे (५६ एमाधान-'अपदेससुत्तमझ सव्वं जिणवर्णन किया है-जैसे कि समयसारमें पात्माकी मुख्यतास मासणं द्रव्य श्रुतमें रहने वाले स-पूर्ण जिनशासनका यह वर्णन है यद्यपि शेष तत्वोंका भी प्रासंगिक रूपये गौणतया उक पाठका अर्थ होनेसे पाठ शुद्ध है। अथवा इग्यश्रतम वर्णन है-जीव द्रव्यका विशद विवेचन जीवकारडमें विवेचना रूपसे पाए जाने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको' यह मिलेगा। बन्धका अत्यन्त विस्तार पूर्वक वर्णन महाबन्धम अर्थ ले लवें । अथवा सप्तमी श्रथम द्वितीयका प्रयोग मानमिलेगा। किसीने किसी भङ्गका छन्द के कारण पहले वर्णन कर उसको–“जिणसालणं' का विशेषण न रख कर प्रकृत किया तो किसीने बादमें, तो भी भंग तो सात ही मान है तीन विशेषणासे युक्त आन्माका बतलान वाले इस गाथा किसीने एव' कार लिखा है तो किसीने कहा कि उस रूप द्रव्यश्रतमे या इसके निमित्तसे होने वाले भावत में श्राशयसे जान लेना चाहिये या प्रतिज्ञासे जानना चाहिए सम्पूर्ण जिनशासनको देखता है जो कि उक्त तीन विशेष'स्थाद्', पदके प्रयोगके विषयमें भी उक्त मन्तव्य चरितार्थ गोल विशिष्ट प्राप्माको सम्यग् प्रकारमे जानता देखता होता है संग्रह, व्यवहार, और जुसूत्र इन तीन नयां- या अनुभव करता है। अतः 'अपदेससुत्तमझ' पाठ संगत के प्रयोगसे सामान्य विशेष और प्रवाच्यकी या विधि, हे और खटकन सरीखा नहीं है- भले ही यहाँ 'अपवेसनिषेध और अवाच्यकी या नित्य, अनिस्य और अवाच्यको सन्तमझ' बालं पाठकी संगति किमीने तात्पर्यभावम या व्यापक, व्याप्य और अवाच्यकी योजना करना चाहिये रकवी हो । किन्तु प्रचीनतम प्रतिमें जो 'अपदेसमुत्तमम न कि सर्वथा-मानहस । उभय नामका भंग, नैगमनयसे पाठ है तो अन्य पाठको संगति से क्या ? योजित करना चाहिये । संग्रह, व्यवहार और उभयके साथ में (.) समाधान-इस विषयमे मूल प्राचीनतम प्रतियोंऋजूसूत्रकी योजना करके शेष तीन संग्रह-प्रवाच्य म्यवहार- की देखना चाहिये और इस समयसार पर भा.प्रभाचन्द्रका अवाच्य और उभय-प्रवाच्य भा. नययोगसे जगाना चाहिये 'समयसारप्रकाश नामक व्याख्यान देखना चाहिये-जो न कि सर्वथा-विना सामान्यकी निष्ठाको समके सामान्य कि सेनगण मन्दिर कारंजाम है-जयसेनाचार्य के सामने का सच्चा ज्ञान नहीं होता है। चूंकि निर्विशेष सामान्य 'प्रपदेससुत्तमज्म'-यह पाठ था प्रा. अमृचन्द्र के सामने गधेक मींगके समान है । जब सामान्य है तो वह विशेष यह पाठ नहीं था यह निश्चित रूपसं नहीं कहा जा सकता रूप आधारम---निष्ठामें रहता है अतः संक्षिप्तसं वह है।'अपवेससम्तम' इस पाठको पास्माका भी विशेषण मारा शासन मामान्य और विशेष प्रात्मक है उसीको प्रामा- बनाया जा सकता है और जिनशासनका भी कि णिक प्राचार्योंने बतलया है। अतः समयसार पढ़ कर जिनशासन भी प्रवाहकी अपेक्षासे अनादिमध्यान्त है। निरस्ताग्रह होना चाहिये न कि दुराग्रही-उन्मत्त । इसी संभव है कि-सुत्तमे से 'उ' के नहीं लिखे जानेसे 'अप प्रकार अन्य किसी भी न्याय या सिद्धान्तको पढ़ कर या दससंतमझ' पाठ हो गया हो। और किपीने उसकी कमी भी अनुयोगका पढ़ कर बुद्धि और पाचरणमें शुद्धिके लिये म' को व' पढ़ा हो तब वह अपवेससंतमजक' अपने योग्य समरव और सौम्यताके दर्शन होना चाहिये। हो गया हो। दोनों पाठ राख हेच दोनोंमेंसे कोई यदि दुरभिनिवेशका या सर्वथा भानहरूपभावका अन्त हो किन्तु 'अपदंशसुत्तमझ' ही उसका मूल पाठ
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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