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अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ प्रन्थ
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इस ग्रन्थकी एक प्रति सं०५१ को लिखी हुई महारक शुभचन्द्र के शिष्य एवं पधर महारक जिमचन्द्र ऐबक पक्षाला दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ज्यावर समयमें लिखी गई है। भ. जिमचन्द्रका पहसमय सं.. मौजूद है. जिससे स्पष्ट है कि इस प्रग्यका रचनाकाल उक्त ११०. पहालियों में पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट जान सं० १९८३ सेवादका नहीं है यह सुनिश्चित है, किन्तु पड़ता है कि इस प्रन्यका निर्माण सं०५१से पूर्व हुमा वह उससे कितने पूर्वका है यह ऊपरके कबनसे स्पष्ट ही है. परन्तु पूर्व सीमा अभी अनिश्चित। प्रन्धमें दो है, अर्थात् यह अन्य संभवतः ११०० के पास पासकी सन्धियाँ हैं जिनमें श्रीपान नामक राजाका चरित्र और रचना है।
सिदचक्रवतके महत्वका दिग्दर्शन कराया गया है। इनकी दूसरी कृति 'वरांगचरि' है। यह अन्य इनकी दूसरी कृति 'जिनरत्तिविहाणकहा' नामकी है, नागौरके भहारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उसमें जिसमें शिवरात्रिके ढंग पर 'वीरजिननिवाणरात्रिकथा' चार संधियाँ है। यह ग्रंथ इस समय सामने नहीं है, इस को जन्म दिया गया है और उसकी महत्ता घोषित की गई कारण उसके सम्बन्धमे अभी कुछ भी नहीं कहा है। यह एक छोटा सा खयह प्रन्थ है जो भट्टारक महेन्द्र जा सकता ।
कीर्तिके भामेर के भण्डारमें सुरक्षित है। ३ सुकमालचरिउ-इस थके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं ५-६ णमिणाहचरिउ, चंदप्पहचरिउन दोनों को मुनि गुणभद्रके प्रशिध्य और कुसुमभद्रके शिष्य थे। यह अन्योंके कर्ता जिनदेवके मुत कवि दामोदर है। ये दोनोंही गुजरात देशके नागर मंडल' नामक नगरके निवासी थे। ग्रन्थ नागौर भयहार में सुरक्षित हैं,प्रन्थ सामने न होने से अन्यकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि पूर्णभद्र ने अपनी गुरु पर- इस समय इनका विशेष परिचय देना सम्भव नहीं है। म्पराका उल्लेख करते हुए निम्न मुनियोंके नाम दिये हैं। मल्लिनाथकाव्य-इस प्रन्थके कर्ता मूबसंघके वीरसूरि, मुनिभव, कुसुमभद्र, गुणभद्र, भोर पूर्णभद्र । भहारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और महारक पमनन्दिके शिष्य अन्यकर्ताने अपनेको शीलादिगुणोंसे प्रशंकृत और 'गुण- कवि जयमित्रहल या कवि हरिचन्द्र है जो सहदेवके पुत्र समुद्र' बतलाया है।
थे यह प्रन्थ अभीतक अपूर्ण है। भामेर भंडारने इसकी इनको एकमात्र कृति 'सुकमानचरित' है. जिसमें एक खण्डित प्रति प्राप्त हुई है। इस प्रन्थ प्रतिमें शुरुके भवन्तीके राजा सुकमालका जीवन परिचय छह सधियों चार पत्र नहीं है और अन्तिम १२२वो पत्र भी नहीं है। अबवा परिच्छेदोंमें दिया हुआ है जिससे मालूम होता है प्रन्धकी उपबन्ध प्रशस्तिमें उसका रचना काल भी दिया कि वे जितनं सुकोमल थे, परीपहों तथा उपसर्गाके जीतने
हमा नहीं है जिससे कवि हरिचन्द्रका समय निश्चित किया में उतने ही कठोर एवं गम्भीर थे और उपसर्गादिक मष्टोंके जा सके । यह ग्रंथ पुहम (पृथ्वी) देशके राजाके राज्यों सहन करनेमे दर थे। प्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया भाल्हासाहुके अनुरोधस बनाया गया था। भारतासाहुके, हुमा नहीं है जिससे निश्चियत: यह कहना कठिन है कि पुत्र थे जिन्होंने इस ग्रंथको लिखाकर प्रसिद्ध किया है। यह ग्रंथ कब बना? आमेर भण्डारकी इस प्रतिमें लेखक इनको दूसरी कृति 'वतमायकम्य अथवा श्रेणिक पुष्पिका वाक्य नहीं है किन्तु देहली पंचायती मन्दिरकी चरित है। यह प्रन्य सन्धियामें पूर्ण हुमा है जिसमें प्रति सं. १६३२ की लिखी हुई और इसकी पत्र संख्या नियोंके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और तत्कालीन मगध४५ है। जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ सं० १५१२ से पूर्व देशके सम्राट लिम्पसार या श्रेणिकका चरित वर्णन किया की रचना है कितने पर्व को यह अभी भम्बेषणीय है। गया है। इस प्रन्धको देवरायके पुत्र संचाधिप होविवम्मु'
४सिरिपाल चरिउ-इस ग्रन्थके कर्ता कवि नरसेन के अनुरोधसे बनाया गया है और उन्होंके कर्याभरण है कविने इस प्रथमें अपना कार्य परिचय नहीं दिया किया गया है। समयको कई पतिवाकई शारत्र और न ग्रन्थका रचनाकार ही दिया है, जिससे उस पर भंडारोंमें पाई जाती हैं। इस ग्रंथों मी रचनाकन दिया विचार किया जा सकता । इस प्रन्यकी एक प्रति संवर हुमा नहीं है। यह प्रति जैन सिद्धान्त भवन भाराकी है ११२वदि। मंगलवारका रावर पत्तनके राजाधि- संवत् ११.. की लिखी हुई है जिससे इस प्रन्यकी उत्तरा राजरंगरसिंहके राज्यकालमें बलात्कारगण सरस्वति गणके बधि तो निश्चिम कि यह ६..से पूर्व रचा गया है।