SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D किरण ४ ] उत्तम तप । ११ ठक ऐसा ही हाल कपटी मनुष्यका होता है, कपटी मदसे उन्हें घृणा होती है, वे किसाको प्रसन्न करने के मनुष्यका कृत्रिम मायाजाल जब छिन्न भिन्न हो जाता लिये कुछ कार्य नहीं करते बल्कि आत्म-संतोषके लिए है नब उसका भयानक नंगा रूप जनताके सामने आते ही सब कुछ करते हैं। हुए देर नहीं लगती। उस समय जनताकी दृष्टि से भय नो इनके हृदयमें कभी उत्पन्न ही नहीं वह एक दम गिर जाता है और उसकी प्रतिष्ठा तथा होता। उन्हें अपने बचन पर पूर्ण विश्वास और अचल विश्वास सदाके लिये समाप्त हो जाते हैं। परमें तो रदता रहती है, संसर उसके वचनको प्रामाणिक उस पर किसीका विश्वास रहता ही नहीं। समझता है । धार्मिक आचरणसें उनका सौन्दर्य नहीं जिस मनुष्यका विश्वास संसारसे उठ गया, एक बढ़ता बल्कि उनके कारण उम धर्माचरणका स्वच्छतरहसे वह मनुष्य ही मंगारसे उठ गया । क्योंकि रूप हो जाता है । जनतामें उसका सम्मान स्वयं बढ़ता विश्वासपात्रता ही जीवनका प्रधान चिन्ह है।। चला जाता है। कपटीका हृदय तो निभीक हो ही नहीं सकता, निश्छल व्यक्ति संसारको निर्भयता और मूलभूत क्योंकि सदा उसको अपनी बनावट-कलई खुल जाने धार्मिकताका पाठ पढ़ाता है। उसका प्रत्येक शब्द का भय बना रहता है। उसका धर्माचरण भी नि:सार, निस्तेज एवं उप- उसके हृदयसे निकलता है अतः दूसरे व्यक्तिके हृदयहामजनक होता है जनता उसके धार्मिक भाचरण- को तुरन्त प्रभावित करता है, इसी कारण उसका को 'बगलाभक्ति' का रूप देकर अन्य धार्मिक व्यक्तियों वचन तेजस्वी, प्रभावशाली होता है । उसकी करनी लिये भी अपनी बंसी ही धारणा बना लेती है। अन्य सज्जन व्यक्तियोक लये अनुकरणीय बन इस प्रकार छली-कपटी मनुष्य धार्मिक जगतमं महल जाबी है। तभी तो कहा गया हैपापाचारी माना गया है। मनम्यन्यद् बचस्यन्यत कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम् । जो मनुष्य कपटाचार से दूर रहते हैं अपने मनो- मनस्येकं वचस्येक कमेण्यंकं महात्मनाम् ॥ विचारोंके अनुसार ही बोलते हैं तथा करते हैं, वे अर्थात्-कपटी मनुष्य पापी होते है और सरलव्यक्ति सदा बनावटसे दूर रहते हैं, चापलूसी, खुशा- चित्त व्यक्ति महात्मा हाते हैं। उत्तम तप (पी. एन. शात्री) इच्छामका रोकना तप है। तप जीवन-शुदिके यह मानव अनादि कालसे मोही होनेके कारण अमित लिये अत्यन्त आवश्यक है। बिना किसी तपश्चरणकं इजात्राका केन्द्र बन रहा है। एक अभिलाषा अथवा आम्म-शुद्धिका हाना निनान्त कठिन ही नहीं किन्नु अम- इच्छा पूरी नहीं हो पाती, तब तक दूसरी आ धमकती है। म्भव है। जिस तरह खानसे निकलने वाले सुवर्ण पाषाण- इस तरह जीवनके साथ इनका प्रतिसमय तांता लगा से प्राप्त सोनेको शुद्ध बनानेके लिये अग्निमंनापनादि रहना है एक समयको भी इनसे छुट्टी नहीं हो पाती। प्रयोगों द्वारा सुवर्णकार उसे शुद्ध बनाता है। उक्त प्रक्रियाके इच्छाएँ अनन्त है और मानव जीवन सीमित अवस्थाको विना मोनेका वह शुद्ध रूप प्राप्त नहीं हो सका, जिसे लिये हए है अतः उन अनन्त इच्छानोंकी पूर्ति से हो 'कंचन' या मौटंचका मांगा कहा जाता है। ठीक उमो सकती है? यदि कदाचित् किमी अभिलषित इच्छाकी प्रकार अनादि कालसे मिथ्यात्व, विरति, प्रमाद, कपाय पूर्ति भी हो जाय तो तत्काल अन्य अनेक इमाप उत्पन और योग रूप परिवतिसे होनेवाले कर्मबन्धनसे भारमा हो जाती है, ऐसी स्थितिमें इच्छाओंकी आपूर्ति सदा बनी मलिन हो रहा है-उसकी अशुद्धताको दूर करनेके लिए ही रहती है, इच्छाका नाम ही दुःख है। जिसकी जितनी तपश्चरण करना अत्यन्त जरूरी है। बिना उस प्रयत्नके इच्छाएँ परी हो जाती है वह उतना ही अधिक लोकमें प्रारम-शुद्धि करना सम्भव नहीं जंचता सुखी माना जाता है। पर वान्तवमें इच्छा पूर्तिसे सुख 'इच्छानिरोधस्तपः'-तस्वार्थसूत्रे गृपिच्छाचार्यः। नहीं मिलता, वह कोरा सुखाभास है-मूठा सुख है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy