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________________ १३२] अनकान्त [किरण ४ क्योंकि इच्छा ही दुःख है, इच्छा ही परिग्रह है, मोह और क्लेश, मायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग अज्ञानका परिणाम है। जिसके जितनी अधिक इच्छाएं और ध्यान । इनमेंसे श्रादिके छह तप बाह्य हैं, इनका हैं वह उतना ही अधिक परिग्रही अथवा मोही है, और आचरण बाह्य जीवन में दिखता है इसीसे इन्हें बाह्य कोटि अनन्त दुखोंका पात्र है। यह अज्ञ प्राणी बाह्य इच्छापूर्ति में रखा गया है। इनका माधन अन्तस्तपकी वृद्धि के लिये मात्रको सुख समझता है इसीसे रातदिन उन्हीं की पूर्तिमें किया जाता है। परन्तु अन्तस्तप प्रारमासाधनामें विशेष लगा रहता है, और उसके लिए अनेक प्रयत्न करता है। उपयोगी हैं। उन्हींसे कर्मबलाका जाल करता है। चोरी, दगाबाजी, विश्वासघात,और छल-कपट आदि अनेक इन अन्तरंग तपोंमें स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों ही तप दूषित वृत्तियोंके द्वारा इच्छाकी पूर्ति के लिये दौड़ धूप करता मुमुच योगीके लिये विशेष महत्व है। योगीको ध्यान रहता है। उसीके लिये समुद्री और पर्वत तथा कन्दरा एवं स्वाध्यायसे उस पारमबलकी प्राप्ति होती है जो कर्मकी सैर करता है.अनेक कष्ट भोगता है और कार्य सिद्धिके की क्षपणा अथवा क्षय करनेकी सामर्थ्यको लिये हुए है। अभाव में विकन हुमा मानसिक सन्तापसे उत्पादित रहता है यही कारण है कि जब योगी आत्म-समाधिमें स्थित हो हजारपतिसे लेकर लखपति या करोड़ पति अथवा अरबपति जाता है तब उसके बाह्म और पाभ्यन्तर इच्छाओंका बन जाने पर भी सुखी नहीं देखा जाता वह दुःखी ही पूर्णतया निरोध हो जाता है। इच्छाअंकि निगेध होनेसे पाया जाता है। प्राचार्य गुणभद्र ने कहा है कि- तजन्य संकल्प विकल्पोंका भी प्रभाव हो जाता है। और आशागतःप्रतिवाणि यस्मिन्विश्वमणूपमम । धारमा अपने सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रादि गुणोंमें एकनिष्ठ किकदा कियदायाति वृथा या विषयापना। होते ही मोहकमकी उस सुदृढ़ सांकलको खंडित कर देता 'इस जीवका माशारूपी खादा इतना गहरा है कि उसमें है जिसके टूटते ही कोंके सभी बन्धन अशक्त बन जाते विश्वकी समस्त सम्पदा मणुके समान है। तब किसके हिस्समें हैं-फलदान की सामर्थ्यस रिक्त हो जाते हैं। और प्रात्मा कितनी भावेगी! अतः इस विषयेषणाको धिक्कार है।' क्षणमात्रमें उनके भारसे मुक्त होकर अपनी अक्षय सम्पदा जिस तरह सहस्त्रों नदियोंके जलसे समुद्रकी तृप्ति का स्वामी बन जाता है । तपकी अपूर्व सामर्थ्य है जो नहीं होती उसी तरह पंचेन्द्रियोंके विषयोंका अनादिकालसे जीवको दुःखपरम्परासे छुड़ाकर त्रैलोक्यक जीवोंके द्वारा सेवन करते हुए भी जीवकी तृप्ति नहीं होती। भोग उप- अभिवंद्य एवं उपास्य बना देती है। भोगकी पाकांचाएँ संसारवृद्धिकी कारण हैं उनसे तापकी अतः हम सबका कर्तव्य है कि हम भी अपने जीवनशान्ति नहीं हो सकती। उनसे उल्टी तृष्णाकी अभि- को संयत बनान्का यत्न करें। अपनी इच्छाको सीमित वृद्धि ही होती है। अतएव हमें चाहिये कि कर्मोदयसे कर स्वस्थ, सुखी बनें और भारमयलको उन्नत करें, तथा प्राप्त भोग उपभोगकी सामग्री में सन्तोष रखते हुए अपनी दुःखासे छूटनेका प्यन्न करे । श्राज हम लोग असीमित इच्छाभोंकी प्रवृत्तिको सीमित बनानेका यत्न करें । यम इक्छाओंके कारण अर्थसंचय और विविध भोगांके और नियमका सावधानीसे पालन करें, क्योंकि ये दोनों उपभोगकी लालमामें लगे हुए हैं। अपनी स्वार्थपरतासे ही गुण इच्छाके निरोधमें कारण है। जीवनमे यम और एक दूसरेका बुरा सोचते हैं, दूसरोंकी सम्पत्ति और उनके नियम रूप प्रवृत्तिसे संयमका वह छिपा हुआ रूप सामने भोगोंकी प्रवृत्तिसे असन्ताष एवं डाह करते है। स्वयं पापाता है. और फिर लोकमें प्रशान्तिकी वह भीषण परिग्रहका संचय करते हैं, असत्य बोलते हैं, दूसरेकी बाधा भी दूर होने लगती है। चुगली करते हैं, और अपने असहिष्णु व्यवहारसे अपनी उपर बतलाया गया है कि इच्छायांका निरोध तपसे प्रात्मवंचना करते हुए जगतको ठगने अथवा धोखा देनेका होता है। वह तप दो प्रकारका है। बाहा और अन्तरंग। यत्न करते हैं, यह कितनी अज्ञानता है। अतः हमें चाहिए दोनीही तप अपने छह छह भेदोको लिये हुए हैं-इस कि हम भी अपनी इच्छामों पर नियन्त्रण कर तपकी तरह तपके कुल बारह भेद हैं, अनशन, उनोदर, वृत्ति- महत्ताका मूल्यांकन करते हुए सन्तोषी, सुखी बनें, तथा परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक शय्यासन और काय- एक देश तपरवी बन कर अपना हित साधन करें। "
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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