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किरण]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
दिगम्बर जैन बोडिंग हाउसमें जा पहुँचे। वहाँ वेदी प्रतिहा साबमें यह भी विचार माया कि प्रत्येक मन्दिर में इसी महोत्सवका कार्य सम्पन्न होनेसे स्थान खाली न वा पं० प्रकारकी चिताकर्षक मतियाँ होनी चाहिये और मन्दिर सिद्धसागरजीका ५..मादमियोंका एक संघ पहलेसे ठहरा इसी तरह सादा तथा धर्मसाधनकी अब मुविधाको हुमा था। फिर भी योषा सा स्थान मल गया उसीमें लिये होने चाहिये। राजकोटका यह मन्दिर दो गई बास रात विताई। और काब उठकर सामयिक क्रियामोंसे रुपया खर्च करके गुजरातके संत श्रीकानजीस्वामी प. निवृत्त होकर दर्शन किये । यहाँकी जनताने 'प्रीति भोज' देशसे अभी बनकर तैयार हुभा है। मन्दिर सादा, स्वा. मी दिया और मुख्तार साहमके दीर्घायु होने की कामना हवादार और धर्मसाधनके लिये उपयुक्त, श्रीमम्बर भी की। भहारक यशकीर्ति और पं. रामचन्द्रजी शर्मासे स्वामीको उक्त मूर्तिका चित्र भी लिया गया।मचारी भी परिचय हुआ।
. मूलशंकरजीके यहां हम लोगोंने भोजन किया। उस समय सबेरे अहमदाबादसे हम लोग राजकोटके लिये रवाना ब्रह्मचारीजोके कुटुम्बका परिचय पाकर दी प्रसनताई हुए और वीरमगाँव पहुँच गए । वीरमगांवसे वडमानकी मूलशंकरजीने अपने हरे-भरे एवं सुख समर परिवारोंको भोर चले, परन्तु बीच में ही रास्ता भूल गए जिससे बा. बोपकर पात्मकल्याणकी रहिसे अपनेको प्रोसेसर राजकृष्णाजी और सेठ छदामीबाखाजीसे हमारा सम्बन्ध किया। उनके दोनों लपके पोते और पोती साधर्मपल्ली विच्छेद हो गया, वे पीछे रह गए और हम मागे निकल सभा शान्त और धर्मश्रदालु आन पड़े। उनके समस्त पाये । रास्ता पगलियोंके रूपमें था, पंचने पर लोग परिवारका संयुक्त चित्रभी लिया गया है। वामानको दो गऊ या चार गो बतलाते थे, परन्तु कई राजकोट गुजरातका एक अच्छा शहर है, यहाँसमो प्रकारमोल चखनेके बाद भी वहमानका कहीं पता नहीं चलता की चीजें मिलती हैं नगर समृद्ध है, अहमदाबादकी अपेक्षा था। इस कारण बड़ी परेशानी उठाई । जब ५-६ मील अधिक साफ-सुथरा है। यहां जैनियों पर कानजीस्वामीचलकर खोगोंसे रास्ता पूछते तो वे उपर वाला ही उत्तर के उपदेशोंका अच्छा प्रसर है। दुपहर बाद हम लोग देते। आखिर कई मीलका चक्कर काटते हुए हम बोग राजकोटसे रवाना होकर गोधरा होते हुए सूनागढ़ पहुंचे
बजेके करीब वडमान पहुँचे । परन्तु वहाँका पानी और वहांसे गिरनारजीकी तलहटीमें स्थित धर्मशाखामें अत्यन्त खारी था । माखिर एक श्वेताम्बर मन्दिरमें पहुँचे, गए। वहां देखा तो दिगम्बर धर्मशाला यात्रियोंसे उसाठस उनसे पूछा, ठहरनेकी अनुमति मिल गई, हम लोगोंने भरी हुई थी। उसमें स्थान न मिलने पर हम लोग खेता नहा धोकर दर्शन सामायिकादिसे निवृत्त होकर साथ में रखे मार धर्मशान में ठहरे। प्रातःकासबजेके करीब दैनिक हुए भोजनसे अपनी छुधा शान्त की। वहांके संघने मीठे कृत्योंसे निपटकर हम लोग यात्राको गए और हम खोगोंने पानीकी सब व्यवस्था को। चे साधर्मी सज्जन बड़े भद्र पहाव पर चढ़कर सामन्द यात्राएं की।पात्रामें बदाही प्रकृतिके जान पड़ते थे। वहाँसे हम लोग चलकर रानिमें मानन्द भावा। मार्गजन्य कष्टका किंचिद भी अनुभव
बजेके करीब'राजकोट' पहुँचे और कानजी स्वामीके नहीं हुचा । गिरिनगर या गिरिनारका प्राचीन नाम उपदेशसे निर्मित नवन मंदिरके बहावे में स्थित कमरों में 'उज्जयंत' 'जंयन्त' गिरि है। रैवतकगिरि और गिरिउहरे।
नगर नामोंका का प्रचलन हुमा इसका ठीक निर्देश प्रमी राजकोट निवासी मूलशंकरजीके साथ होनेसे तक नहीं मिला, किन्तु इतना किविक्रमकीवी हम लोगोंको ठहरने में किसी प्रकारकी असुविधा नहीं शताब्दीक भाषायें वीरसेनने अपनी पवाटीकामें 'सोरटप्रात:काल देनिक क्रियानोंसे निवृत्त होकर मंदिरजीमें भी विषय-गिरिचयर-पट्टण-बंदगुहा-ठिएव' वाक्यके द्वारा मंधरस्वामोको भव्य मूर्तिके दर्शन किये । मृतिपदीही सौराष्ट्र देशमें स्थित गिरिनगर का उल्लेख किया है जिससे मनोज और चित्ताकर्षक है, मूर्तिका अवलोकन कर हम पर ध्वनित होता है कि उस समय तथा उससे पूर्व खोग मार्गजन्य खेदको भूल गये, दयकम लिख गये. "गिरिनगर' शब्दका प्रचार हो चुका था। उक्त मूर्तियों के दर्शनसे भभूत पूर्व भामद हुमा । वास्तवमें गिरिनगर सौराष्ट्रदेशकी बह पवित्र भूमि जिस मूर्ति कलाकार मनोभावोंका मूर्तिमान विजय। पर बैनियोंके २९ वीर्यकर भगवान नेमिनाथने वपर्या