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भनेकान्त
द्वारा कर्मशत्रुओंको विनष्ट कर केवलज्ञान द्वारा जगतके इस क्षेत्रका यात्रासे सातिशय पुण्यका संचय होता है। जीवोंको संसारके दुःखोंसे छूटनेका सरल उपाय बतलाया प्राचीनकालमें अनेक तीर्थ यात्रा संघ इस पर्वत पर था, साथ ही लोक में दयाकी वह मन्दाकिनो बहाई जिमसे अपूर्व उत्साहके साथ पाते और पूजा वंदनाकर लौट अनन्त जीवोंका उद्धार हुमा था, मांसभक्षणकी लोलुपता. जाते थे। माज यह केवल जैनियोंका ही तीर्थ नहीं रहा के लिये बंदी किये गये उन पशुओंको रिहाई मिलो थी है किन्तु हिन्दुओं और मुसलमानोंका भी तीर्थ बना हुमा जो भगवान नेमिनायके विवाह में सम्मिखित यदुवंशी राजाओं है । हिन्दु लाग पांचवी टोंक पर नेमिनाथके चरणोंको की धापूर्तिक लिये एक बाडे में इकट्ठ किये गये थे। इस दत्तात्रयके चरण बतलाकर पूजते हैं और दूसरी तीसरी पर्वत पर सहस्त्रों व्यक्तियोंने तृष्णाके अपरिमित ताराको टोंक पर उन्होंने अपने तीर्थस्थानकी भी कल्पना की खोपकर और देहसे भी नेह कोषकर भारमसाधना कर हुई है। अतः हिन्दू समाज भी इस क्षेत्रका समादर करता परमात्मपद प्राप्त किया था। अतएव यह निर्वाण भूमि है। मुसलमान भी मदारसा नामक पीरकी का बतलाकर अत्यन्त पवित्र है। यहांके भूमण्डलके कण कण में साधना इबादत करने आते हैं। कीबह पवित्र भावना तपश्रर्याकी महता, तथा स्वपर-दया- जैनियोंके मन्दिर प्रथम टॉक पर ही पाये जाते हैं। का उत्कर्ष सर्वत्र व्याप्त है। भगवान नेमिनाथको जयके भागेकी टोंकों पर केवल चरण-चिन्ह ही अंकित हैं। यह नारे असमर्थ वृद्धामों एवं अन्य दुबेल व्यक्तियाक जोवनम मन्दिर दो भागों विभाजित ३ दिगम्बर और श्वेताम्बर । मी उत्साह और धैर्यकी लहर उत्पन्न कर देते हैं।
दिगम्बर मन्दिरोंकी संख्या सिर्फ तीन हे और श्वेताम्बराके नेमिनाथ भगवानके गणधर वरदत्तकी और अगणित मंदिरोंको संख्या २२ है। मुझे तो ऐसा लगता है कि प्राचीन मुनियोंकी यह निर्वाणभूमि रहा है । अतः इसको महत्ताका काल में इस क्षेत्रपर दिगम्बर श्वेताम्बरका कोई भेद नहीं कथन हम से अल्पज्ञोंसे नहीं हो सकता ।
था, सभी यात्री समान भावसे भाते और यात्रा करके चले इसी सौराष्ट्र देशके उक्त गिरिनगरकी 'चन्दगफ जाते थे। परन्तु १०वीं 11वीं सदीके बादसे साम्प्रदायिक में पाजसे दो हजार वर्ष पहले अष्टांग महानिमित्त ज्ञानी
व्यामोहको मात्रा अधिक बढ़ी तभीस उक्त कल्पना रूढ़ हुई प्रवचन वत्सल, महातपस्वी शीशकाययोगी अंगपूर्वके एक
है । इसमे सन्दह नहीं कि उभय समाज के श्रीमानो और देशपाठी धरसेनाचार्य ने दक्षिण देशवासी महिमा नगरीक
विद्वानी तथा साधु समय समय पर यात्रा संघ पाते उत्सवसे भागत पुष्पदन्त भूतबजिनामक साधुनोंको सिद्धांत
रहे हैं। आज हम वहां गिरिनगरमें विक्रमकी १२वीं १३वीं प्रन्थ पढ़ाया था।
शताब्दाके बन हुए श्वेताम्बर मन्दिर देखते है किन्तु पुरा इसके सिवाय, विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके प्राचार्य
तन दिगम्बर मन्दिराका कोई अवशेष देखने में नहीं पाता। समन्तभद्र स्वामीके स्वयम्भू स्तानके अनुसार उस समय
वर्तमानमें जो दिगम्बर मन्दिर विद्यमान हैं वे १७ वीं
शताब्दी के जान पड़ते हैं. य प ये उसी जगह बने हुए यह पहाब भक्तिसे उल्लसितचित्त ऋषियों द्वारा निरन्तर अभिसेवित था और पहारकी शिखरें विद्याधरोंकी स्त्रियांसे
कहे जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गिरनगरमें दिगम्बर समलंकृत थीं। इससे स्पष्ट है कि आजसे १६०० वर्ष
पुरातन मदिर न बने हो, क्योंकि पुरातन मन्दिर और पूर्व यह पावन तार्थभूमि जैन साधुओके द्वारा अभिवंद
चरणवन्दनाके उल्लेख भी उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट जान नीय तथा तपश्चरण भूमि बनी हुई थी। उसके बाद अब
पड़ता है कि गिरिनगर पर .ि. मन्दिर विद्यमान थे। सकतक यह भूमि बराबर तीर्थभूमिके रूपमे जगत में मानी
कमसे कम १२ वी १३ वीं शताब्दीके मन्दिर तो अवश्यही एवं पूजी जाती रही है। अनेक साधु, श्रावक, प्राविकाओं
बने हुए थे। पर उनका क्या हुश्रा यह कुछ समझमें नहीं और विद्वानों द्वारा समय॑नीय है। इसी कारण जैन
पाता, हो सकता है कि कुछ पुरातन मन्दिर के मूर्तियां समाजमें इस क्षेत्रकी निर्वाणक्षेत्रांमें गणनाकी गई है।
जी हो गई हों, या उपद्रवादिके कारण विनष्ट कर
दी गई कुछ भी हुमा हो पर उ.के अस्तित्वसे इंकार गिरिनगरकी यह गुफा आजकल 'बाबा प्यारा के नहीं किया जा सकता। परन्नु खेद है कि सम्प्रदायके व्यामह' के पास वाली जान पड़ती है।
मोहसे दिगम्बरोंकोचपनी प्राचीन सम्पत्तिसे भी हाथ धोना