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________________ दशलाक्षणिक धर्मस्वरूप (कविवर रह) [तेरहवीं शताब्दीके विद्वान कविवर रहने जिनकी संजादा अइविसमा इय मणिविणो खमा चत्ता॥१० बनाई हुई दशबषय पूजाकी जममाल दशलक्षण पर्वमें जइजि परोमह-संगार-कसाय-सुहडेण ताहमाणेण । प्रायः सर्वत्र पढ़ी और व्याख्यान की जाती है, 'वृत्तसार' जइ खमदुग्ग छंडसि ता खयजामीह कयणिच्छ ११॥ (चारित्रसार) नामका एक सुन्दर अन्य प्रायःप्राकृत भाषामें मिच्छाइट्ठी मूढा जइ सो पीडेइ ता जि णवि दासो। गाथावर रचा है. जिसके रचने में हाल साहू अग्रवालके पुत्र जहां विवेय-जुत्तो कोहं गच्छमि तंपिणो णाओ॥१२॥ माद साह खास तौरसे प्रेरक हुए हैं और इसलिये जो जइ दुव्वयणं जापवि मज्झ सुही हाइ दुज्जणो दोसी। उन्हींके नामानित किया गया है। यह ग्रन्थ अभी तक ता महु जीविययत्व सहलं भवदोह लोर्याम्म ॥१३॥ प्रकाशमें नहीं पाया है। इसमें दशलक्षण धर्मके स्वरूप- कम्मोदए पवरणे भव्वु वियारइ एम णिचित्ते । वर्णन-विषयका एक सर्ग अंक) ही अलग है, जो प्रकृत एहु विणो अण्णाश्रो कियकम्म ज फलं देइ ॥१४॥ विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है और काफी सरल ज मई चिरवि विहिद सुहासुहं कम्म तजि सुहदक्खं । तथा सुबोध है । अतः इस शुभ अवमर पर इसे यहाँ उद्धत देइजि णियमादो इह णिमित्तमत्त पुणो अपणो ||१४|| किया जाता है। पूरे ग्रन्थको वीरसेवामन्दिरसे सानुवाद महु उतमखम णिसुरिणांव वइरियणा छेय-भेयणाईहिं। प्रकाशनका भी विचार चल रहा है। त पेक्खु रणत्थि आया खणु विम छंडेहि सा धीरा ॥१६ -सम्पादक] हउं महवय-भर-कुस न विक्य-जुत्तो वि पावणा संता । उत्तम-क्षमा णिम्ममा वि णियकाए कोहं गच्छंतु लज्जेमि ॥१७॥ असमत्थेण जि विहिद उवसग्गजइ सहेइस समथो। जह जह कुवि उवसग्गी करेइ सवणस्स तह तह चव । ता होइ उत्तमा सा खमा जि सग्गालारणस्पेणि॥१॥ उत्तमखमा सुवरण अहिययरं गिम्मलं होइ॥१८॥ चिकियकम्में सुहु-दुह लम्भइ चित्तम्मि एवमएणंतो। जं पुणकारणजादे खमागुणं होइ त ज कयासंसं । णो रजदि णो कुद्धाद उत्तमखम भावदे णिच्चं ॥२ णिक्कारणेण काई अत्थि खमा-ग्जिदो लोगो ॥१६॥ णीयजहिं अवगणिदो उत्त मुसाहूवि माण सामथ । तव-सजम-सीलाणं जगणी कोहग्गि-नाव-घण-चिठ्ठी। यो कुद्धदि तम्सोवरि सकम्म-विलयं वियाणतो ।।३।। सिवगइ बहुहि सहिल्ली उत्तम खम पावणा किच्चा।२० तव-संजम-आराम चिरकालेणावि पालिदं फलद। ना गुरुयणाणदासं लज्जा-भय-गारव-वसादो छ। तं कोहग्गिउदिएणा पजालयद्दीह लीलेव ।।४।। सहइण मा उत्तमखमा तीज खमाणाममत्त य ॥२१॥ कोहंधु डहा पढमं अप्पाणं एत्थु मंजमावारं। हउ कोसिदो ण णिहदा णिहदोवि या मारिदो य दयचत्त अण्णस्स डहदि णो वा इदि मणिवि तंण कायव्वं ॥५ मरण पत्तु व तहवि हुण काहयामीदि मे बुद्धी ॥२२॥ उक्तंच-दसणणाणचरित्तहिं अणग्घरयणेहि पूरियं सददं उत्तम-मादव मणकास लटिजज कसायचोहि काणच्छ ॥६॥ मारपकसाएं छडिविकिज्जा परिणाम कोमलं जत्थ। विह लायस्स विरुद्धं दुग्गइ गमणस्स सहयर विच्च। सम्वहं हिउ चितिज्जइ मद्दवगुणभासिदो तत्स्थ ॥२॥ तं कोई मुणिणाहे उत्तम खमयाए जेयब्बं ॥७॥ संजम-व-सव-मूल पसत्थ-धम्मस्स कारणं पढमं । जो उवसग्गु विभिवि कम्म-गदं मझ फेडई विविह। चित्तविसुद्धाहेदा महवंभगो य कायब्वो ॥२४॥ सो णिक्कारणमित्तो तस्स रुसंतो ण लज्जेमि ॥ काइय वाइय तह पुणु माणसिय होइ विणउ तिहुभेए। महु कय-कम्मंणासइ अप्पाण विणासएदि परलोयं । मद्दवजुत्तरणराणं तंचेव जि पायर्ड होदि २५ जोसई दुग्गइ णिवडा तहु रूसंताण साहेइ ॥६॥ उक्त'च-कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं गुरुयणे यबहुमारणं सिवर्माग्ग गम्ममाणे मज्भु परिक्खा कारण विग्या। तित्थयराणं माणा गुण-गहणं महवं होइ॥२६॥
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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