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किरण ५
राजस्थानके जेन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण प्रन्थ
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यह प्रति संवत १५६१ पौष सुदी १३ हस्पतवारकी जो प्रन्य-सूची भाजकल तैयार की जा रही है उसके लिखी हुई है। श्री चाहड सौगाणीने कर्मक्षय निमित्त सम्बन्धमे मुझे नागौर जाकर ग्रन्थ भण्डार एवं सूचीके इसकी प्रतिलिपि की थी। महारक परम्परामें लिपिकारने कार्य को देखनका सुअवसर मिला था। उसी समय यह महाक जनधन्द्र एवं उनके शिष्य रत्नकोनिका उल्लेख रचना भी देखने में प्रायी। किया है।
शातिनाथचरित्रके रचयिता श्री शुभकीर्ति देव हैं। कविने निम्न दोइसे बारहवडी प्रारम्भ की ई
कविने अपने नामके पूर्व उभय भाषा चक्काटि भर्थात्
उभयभाषा चकवति यह विशेषण लगाया है इसलिये सम्भव बारह विउया जिण यावम्मि किय वारहम्बरकाकु ।
है कि शुभकीति संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषाके विद्वान महियंदण भविययण ही णिसुण हु थिरु मणु लक्कु ॥
हो। इन्होने अपनी रचनाको महाकाव्य लिखा है। और भव दुबह निविषणएण 'वीरचन्द' सिस्संण ।
बहुत कुछ अंशामें यह सत्य भी जानपड़ता है। शांतिनाथभवियह पडिबोहण कथा दोहा कक्कमिसंण ॥
चरित्र की रचना रूपचन्दके अनुरोध पर की गयी है जैसा एकजु श्राखरूसार दुइज जगा तिगिण वि मिक्लि ।
कि कविके निम्न उल्लेख स्पष्ट है।। चउवीसग्गल तिरिणसय विरहए दोहा विल्लि ॥
इस महाकाव्यमे १६ संधियां हैं जिनमें शांतिनाथके सो दोहउ अप्पाणयहु दाहा जाण मुणेइ ।
जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रथम और मगि महयंदिण भामियउ सुणि णिय चित्त धरेइ ॥
अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार हैअब बारहम्पटीके कुछ दोहे पाठकोके अलोकनार्थ प्रथम संधिउपस्थित किये जाते है जिसम्म व रचनाकी भाषा. शनीय उभयभासा चक्कट सिरि सुकित्तिदेव विरहए एवं उसमे वर्णित विषयके सम्बन्ध में कुछ अधिक जान- महाभब्य मिरिरुवचंद्र मारणए महाकम्वे सिरि विजय कारी प्राप्त कर सकें
बंभणी णाम पढमा संधि सम्मत्तो कायहो सारउ पुय जिय पंचमहाणु वयाइ ।
अन्तिम संधि
इाय उभयभाषा चक्कट सिरि सुहकित्तिदेव विरहए अलिउ कलेवर भार तहुर्जाह ण रियइ ताइ॥
महाभ द सिरिरुवचंद मरियाग महाकवे सिरि सांतिणाहखणि म्बणि खिज्जइ श्रावतसु णियडउ हाई कयंतु ।
चचक्काउह कुमार शिवाण गमणं णाम इगुणीसमो
संधि समतो। तहि वण थक्का माहियउ मे मे जीउ भणंतु ॥
नागौर शास्त्र भण्डारकी यह प्रति सम्बत् १५५॥ गीलइ गुडि जिम माछाह पासि पडि वि मरंति ।
ज्येष्ठ सुदी १० बुधवारकी लिग्बी हुई है। इसकी प्रति निम भुवि महदिण कहिय जे तिय संगु करीत ॥
विपि महरक जिनचन्द्र देवके शिष्य ब. धीरु तथा प्रम लालाने अपने पढ़ने के लिये करवायी थी प्रतिपूर्ण
और मामान्य अवस्था में है। तं कि दे कि गुरूणा धम्मण य कि तेण । अप्पाए चिर हरिणम्मलउ पंचर होहण जण ॥
यागसार ( श्रनकीर्ति)
मे परियणु मे धण्णु धणु मे सुव मे दाराई।
___ भ० श्रुतकनिकी नीन रचनायोका-धर्मपरीक्षा, हरि
वंशपुराण और परम प्ठप्राशसार का-दाहारला जी इउ चितंतह जीव तुहु गय भव-कोडिमयाई ॥
जन श्री. नागपुर विश्वविद्यालयन अनेकान्त वर्ष " सांतिणाहचारउ (शुभकार्ति) किरण • में उलिब किया था। यंगसार' के सम्बन्धमें
डाक्टर माहबने कोई उल्लेख नहीं किया, इसलिए यह उक्त रचना नागौर (राजस्थान) के प्रसिद्ध भट्टारकीय श्रुतकति की चौथी रचना है जिसका हम अभी अभी शास्त्र भंडारमें उपलब्ध हुई है। नागौर शाम्ब भंडारकी पोरचय मिला ह यह रचना नई है।